पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
खुदी
६५
 

किसी मे वह हिम्मत न थी जो उससे कहता, आज से तू मेरी है। उस पर दिल न्यौछावर करनेवाले बहुतेरे थे, सच्चा साथी एक भी न था। असल में उन सरफिरो को वह बहुत नीची निगाह से देखती थी। कोई उसकी मुहब्बत के क़ाबिल नही था। ऐसे पस्त-हिम्मतो को वह खिलौनो से ज्य़ादा महत्व न देना चाहती थी, जिनका मारना और जिलाना एक मनोरंजन से अधिक कुछ नही।

जिस वक्त़ कोई नौजवान मिठाइयो के थाल और फूलो के हार लिये उसके सामने खड़ा हो जाता तो उसका जी चाहता, मुँह नोच लूँ। उसे वह चीजे कालकूट हलाहल जैसी लगती। उनकी जगह वह रूखी रोटियाँ चाहती थी, सच्चे प्रेम में डूबी हुई। गहनो और अशर्फ़ियो के ढेर उसे बिच्छू के डक जैसे लगते। उनके बदले वह सच्ची, दिल के भीतर से निकली हुई बातें चाहती थी जिनमे प्रेम की गूज और सच्चाई का गीत हो। उसे रहने को महल मिलते थे, पहनने को रेशम, खाने को एक-से-एक व्यजन, पर उसे इन चीजों की आकाक्षा न थी। उसे आकांक्षा थी, फूस के झोपड़े, मोटे-झोटे गाढ़े और रूखे-सूखे खाने की। उसे प्राणघातक सिद्धियों से प्राणपोषक निषेध कहीं ज्यादा प्रिय थे, खुली हवा के मुकाबले में बंद पिंजरा कही ज्यादा चहेता!

एक दिन एक परदेसी गाँव में आ निकला। बहुत ही कमजोर, दीन-हीन आदमी था। एक पेड़ के नीचे सत्तू खाकर लेटा हुआ था। एकाएक मुन्नी उवर से जा निकली। मुसाफिर को देखकर बोली--कहॉ जाओगे?

मुसाफ़िर ने बेरुखी से जवाब दिया--जहन्नुम!

मुन्नी ने मुस्कराकर कहा--क्यो, क्या दुनिया में जगह नहीं?

'औरों के लिए होगी, मेरे लिए नहीं।'

'दिल पर कोई चोट लगी है?'

मुशाफिर ने जहरीली हँसी हँसकर कहा--बदनसीबों की तकदीर मे और क्या है! रोना-धोना और डूब मरना, यही उनकी जिन्दगी का खुलासा है। पहली दो मजिले तो तय कर चुका, अब तीसरी मजिल और बाक़ी है, कोई दिन वह भी पूरी हो जायगी; ईश्वर ने चाहा तो बहुत जल्द।

यह एक चोट खाये हुए दिल के शब्द थे। जरूर उसके पहलू में दिल है। वर्ना यह दर्द कहाँ से आता? मुन्नी बहुत दिनों से दिल की तलाश कर रही थी। बोली--कही और वफ़ा की तलाश क्यों नहीं करते?