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गुप्त धन
 


मुसाफिर ने निराशा के भाव से उत्तर दिया--मेरी तकदीर मे नहीं, वर्ना मेरा क्या बना-बनाया घोसला उजड जाता। दौलत मेरे पास नही। रूप-रग मेरे पास नही, फिर वफा की देवी मुझ पर क्यो मेहरबान होने लगी? पहले समझता था वफा दिल के बदले मिलती है, अब मालूम हुआ और चीजों की तरह वह भी सोने-चॉदी से खरीदी जा सकती है।

मुन्नी को मालूम हुआ, मेरी नजरो ने धोखा खाया था। मुसाफ़िर बहुत काला नही, सिर्फ साँवला था। उसका नाक-नक्शा भी उसे आकर्षक जान पड़ा। बोली--नहीं, यह बात नही, तुम्हारा पहला खयाल ठीक था।

यह कहकर मुन्नी चली गयी। उसके हृदय के भाव उसके सयम से बाहर हो रहे थे। मुसाफिर किसी खयाल मे डूब गया। वह इस सुन्दरी की बातो पर गौर कर रहा था, क्या सचमुच यहाँ वफ़ा मिलेगी? क्या यहाँ भी तकदीर धोखा न देगी?

मुसाफिर ने रात उसी गाँव मे काटी। वह दूसरे दिन भी न गया। तीसरे दिन उसने एक फूस का झोंपडा खडा किया। मुन्नी ने पूछा--यह झोपड़ा किसके लिए बनाते हो?

मुसाफिर ने कहा--जिससे वफा की उम्मीद है।

'चले तो न जाओगे?'

'झोंपडा तो रहेगा।'

'खाली घर में भूत रहते है।

'अपने प्यारे का भूत भी प्यारा होता है।'

दूसरे दिन मुन्नी उस झोंपड़े में रहने लगी। लोगो को देखकर ताज्जुब होता था। मुन्नी उस झोपडे मे नही रह सकती। वह उस भोले मुसाफिर को जरूर दगा देगी, यह आम खयाल था, लेकिन मुन्नी फूली न समाती थी। वह न कभी इतनी सुन्दर दिखायी पड़ी थी, न इतनी खुश। उसे एक ऐसा आदमी मिल गया था, जिसके पहलू मे दिल था।

लेकिन मुसाफिर को दूसरे दिन यह चिन्ता हुई कि कही यहाॅ भी वही अभागा दिन न देखना पडे। रूप में वफा कहाँ? उसे याद आया, पहले भी इसी तरह की बाते हुई थी, ऐसी ही कसमें खायी गयी थी, एक दूसरे से वादे किये गये थे।