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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/६३

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खुदी
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मगर उन कच्चे धागो को टूटते कितनी देर लगी? वह धागे क्या फिर न टूट जायॅगे? उसके क्षणिक आनन्द का समय बहुत जल्द बीत गया और फिर वही निराशा उसके दिल पर छा गयी। इस मरहम से भी उसके जिगर का ज़ख्म न भरा। तीसरे रोज वह सारे दिन उदास और चिन्तित बैठा रहा और चौथे रोज़ लापता हो गया। उसकी यादगार सिर्फ उसकी फूस की झोपडी रह गयी।

मुन्नी दिन भर उसकी राह देखती रही। उसे उम्मीद थी कि वह जरूर आयेगे। लेकिन महीनो गुजर गये, और मुसाफिर न लौटा। कोई खत भी न आया। लेकिन मुन्नी को उम्मीद थी, वह जरूर आयेगे।

साल बीत गया। पेडों मे नयी-नयी कोपले निकली, फूल खिले, फल लगे, काली घटाएँ आयी, बिजली चमकी, यहाँ तक कि जाडा भी बीत गया और मुसाफिर न लौटा। मगर मुन्नी को अब भी उसके आने की उम्मीद थी, वह ज़रा भी चिन्तित न थी, भयभीत न थी। वह दिन भर मजदूरी करती और शाम को झोपड़े में पड रहती। लेकिन वह झोंपडा अब एक सुरक्षित किला था, जहाँ सिरफिरों के निगाह के पॉव भी लॅगडे हो जाते थे।

एक दिन वह सर पर लकडी का गट्ठा लिये चली आती थी। एक रसिया ने छेडखानी की--मुन्नी, क्यो अपने सुकुमार शरीर के साथ यह अन्याय करती हो? तुम्हारी एक कृपा-दृष्टि पर इस लकडी के बराबर सोना न्योछावर कर सकता हूँ।

मुन्नी ने बड़ी घृणा के साथ कहा--तुम्हारा सोना तुम्हे मुबारक हो, यहाँ अपनी मेहनत का भरोसा है।

'क्यों इतना इतराती हो, अब वह लौटकर न आयेगा।'

मुन्नी ने अपने झोपडे की तरफ इशारा करके कहा--वह गया कहाँ जो लौटकर आयेगा? मेरा होकर वह फिर कहाँ जा सकता है? वह तो मेरे दिल में बैठा हुआ है!

इसी तरह एक दिन एक और प्रेमीजन ने कहा--तुम्हारे लिए मेरा महल हाज़िर है। इस टूटे-फूटे झोंपड़े मे क्या पड़ी हो।

मुन्नी ने अभिमान से कहा--इस झोपड़े पर एक लाख महल न्योछाबर है। यहाँ मैंने वह चीज पायी है, जो और कही नहीं मिली थी और न मिल सकती है। यह झोंपड़ा नहीं है, मेरे प्यारे का दिल है!

इस झोपड़े में मुन्नी ने सत्तर साल काटे। मरने के दिन तक उसे मुसाफ़िर के लौटने की उम्मीद थी, उसकी आखिरी निगाहे दरवाज़े की तरफ लगी हुई थी।