बड़े बाबू
तीन सौ पैसठ दिन, कई घण्टे और कई मिनट की लगातार और अनथक दौड़-धूप के बाद आखिर मैं अपनी मजिल पर धड़ से पहुँच गया। बड़े बाबू के दर्शन हो गये। मिट्टी के गोले ने आग के गोले का चक्कर पूरा कर लिया। अब तो आप भी मेरी भूगोल की लियाकत के कायल हो गये होगे। इसे रूपक न समझिएगा। बड़े बाबू में दोपहर के सूरज की गर्मी और रोशनी थी और मैं क्या और मेरी बिसात क्या, एक मुट्ठी खाक। बड़े बाबू मुझे देखकर मुस्कराये। हाय, वह बड़े लोगों की
मुस्कराहट, मेरा अधमरा-सा शरीर कॉपने लगा। जी मे आया बड़े बाबू के क़दमों पर बिछ जाऊँ। मैं काफ़िर नहीं, गालिब का मुरीद नहीं, जन्नत के होने पर मुझे पूरा यकीन हैं, उतना ही पूरा जितना अपने अंधेरे घर पर। लेकिन फरिश्ते मुझे जन्नत ले जाने के लिए आते तो भी यकीनन मुझे वह ज़बर्दस्त खुशी न होती जो इस चमकती हुई मुस्कराहट से हुई। आँखों में सरसों फूल गयी। सारा दिल और दिमाग एक बागीचा बन गया। कल्पना ने मित्र के ऊँचे-ऊँचे महल बनाने शुरू कर दिये। सामने कुर्सियों, पर्दो और खस की टट्टियो से सजा-सजाया कमरा था। दरवाज़े पर उम्मीदवारों की भीड़ लगी थी और ईजानिब एक कुर्सी पर शान से बैठे हुए सबको उसका हिस्सा देनेवाले खुदा के दुनियावी फ़र्ज अदा कर रहे थे। नजर-नियाज का तूफान बरपा था और मैं किसी तरफ़ आँख उठाकर न देखता था कि जैसे मुझे किसी से कुछ लेना-देना नहीं।
अचानक एक शेर जैसी गरज ने मेरे बनते हुए महल में एक भूचाल-सा ला दिया--क्या काम है? हाय रे, ये भोलापन! इस पर सारी दुनिया के हसीनों का भोलापन और बेपर्वाही निसार है। इस ड्योढी पर माथा रगड़ते-रगड़ते तीन सौ पैसठ दिन, कई घण्टे और कई मिनट गुजर गये। चौखट का पत्थर घिसकर जमीन से मिल गया। ईदू बिसाती की दुकान के आधे खिलौने और गोवर्द्धन हलवाई की आधी दुकान इसी ड्योढ़ी की भेंट चढ़ गयी और मुझसे आज सबाल होता है, क्या काम है!
मगर नहीं, यह मेरी ज्यादती है। सरासर जुल्म। जो दिमाग़ बड़े-बड़े