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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/६६

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गुप्त धन
 

मुल्की और माली और तभद्दुनी मसलो मे दिन-रात लगा रहता हो, जो दिमाग डाकिटों, सरकुलरो, परवानो, हुक्मनामो, नक्शो वगैरह के बोझ से दबा जा रहा हो, उसके नजदीक मुझ-जैसे खाक के पुतले की हस्ती ही क्या। मच्छर अपने को चाहे हाथी समझ ले पर बल के सीग को उसकी क्या खबर। मैने दबी जबान से कहा--हुजूर की कदमबोसी के लिए हाजिर हुआ।

बड़े बाबू फिर गरजे--क्या काम है?

अबकी बार मेरे रोएँ खडे हो गये। खुदाके फजल से लहीम-शहीम आदमी हूँ, जिन दिनो कालेज मे था, मेरे डील-डौल और मेरी बहादुरी और दिलेरी की धूम थी। हाकी टीम का कप्तान, फुटबाल टीम का नायव कप्तान और क्रिकेट का जनरल था। कितने ही गोरो के जिस्म पर अव भी मेरी बहादुरी के दाग बाकी होंगे। मुमकिन है, दो चार अब भी बैसाखियाॅ लिये चलते या रेगते हो। बम्बई कानिकल और टाइम्स मे मेरे गेदो की धूम थी। मगर इस वक्त बाबू साहब की गरज सुनकर मेरा शरीर काँपने लगा। कॉपते हुए बोला--हुजूर की कदमबोसी के लिए हाजिर हुआ।

बडे बाबू ने अपना स्लीपरदार पैर मेरी तरफ बढाकर कहा–-शौक से। लीजिए यह कदम हाजिर है, जितने बोसे चाहे लीजिए, बेहिसाब मामला है, मुझसे कसम ले लीजिए जो मैं गिनूँ, जब तक आपका मुँह न थक जाय, लिये जाइए! मेरे लिए इससे बढकर खुशनसीबी का क्या मौका होगा? औरो को जो बात बडे जप-तप, बड़े सयम-व्रत से मिलती है, वह मुझे बैठे-बिठाये बगैर हड़-फिटकरी लगाये हासिल हो गयी। वल्लाह, हूँ मै भी खुशनसीब। आप अपने दोस्त-अबाब, आत्मीय-स्वजन जो हो, उन सबको लाये तो और भी अच्छा, मेरे यहाँ सबको छूट है।

हँसी के पर्दे मे यह जो जुल्म बड़े बाबू कर रहे थे उस पर शायद अपने दिल में उनको नाज हो। इस मनहूस तकदीर का बुरा हो, जो इस दरवाजे का भिखारी बनाये हुए है। जी मे तो आया कि हजरत के बढ़े हुए पैर को खीच लूँ और आपको ज़िन्दगी भर के लिए सबक़ दे दूँ कि बदनसीबों से दिल्लगी करने का यह मजा है। मगर बदनसीबी अगर दिल पर जब्र न कराये, जिल्लत का एहसास न पैदा करे तो वह बदनसीबी क्यों कहलाये। मै भी एक जमाने में इसी तरह लोगों को तकलीफ़ पहुँचाकर हँसता था। उस वक्त इन बडे बाबुओं की मेरी निगाह मे कोई हस्ती न थी। कितने ही बड़े बाबुओं को रुलाकर छोड़ दिया। कोई ऐसा प्रोफ़ेसर