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बड़े बाबू
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न था, जिसका चेहरा मेरी सूरत देखते ही पीला न पड़ जाता हो। हजार-हजार रूपया पानेवाले प्रोफेसरों की मुझसे कोर दबती थी। ऐसे क्लर्को को मै समझता ही क्या था। लेकिन अब वह जमाना कहाॅ। दिल मे पछताया कि नाहक कदमबोसी का लफ्ज़ जबान पर लाया। मगर अपनी बात कहना ज़रूरी था। मै पक्का इरादा करके आया था कि उस ड्योढी से आज कुछ लेकर ही उठूँगा। मेरे धीरज और बड़े बाबू के इस तरह जानबूझकर अनजान बनने में रस्साकशी थी। दबी जबान से बोला--हुजूर, ग्रेजुएट हूँ।

शुक्र है, हजार शुक्र है, बडे बाबू हँसे। जैसे हॉडी उबल पडी हो। वह गरज और वह करख्त आवाज़ न थी। मेरा माथा रगडना आखिर कहाँ तक असर न करता। शायद असर को मेरी दुआ से दुश्मनी नहीं। मेरे कान बडी बेकरारी से वे लफ्ज़ सुनने के लिए बेचैन हो रहे थे जिनसे मेरी रूह को खुशी होगी। मगर आह, जितनी मायूसी इन कानो को हुई है, उतनी शायद पहाड खोदनेवाले फरहाद को भी न हुई होगी। वह मुस्कराहट न थी, मेरी तकदीर की हॅसी थी। हुजूर ने फरमाया--बड़ी खुशी की बात है, मुल्क और कौम के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है। मेरी दिली तमन्ना है, मुल्क का हर एक नोजवान ग्रेजुएट हो जाय। ग्रेजुएट जिन्दगी के जिस मैदान मे जाय, उस मैदान को तरक्की ही देगा--मुल्की, माली, तमद्दुनी, मजहबी, गरज कि हर एक किस्म की तहरीक का जन्म और तरक्क़ी ग्रेजुएटो ही पर मुनहसर है। अगर मुल्क में ग्रेजुएटों का यह अफसोसनाक अकाल न होता तो असहयोग की तहरीक क्यों इतनी जल्दी मुर्दा हो जाती! क्यो बने हुए, रेंगे सियार, दगाबाज, जरपरस्त लीडरों को डाकेजनी के ऐसे मौके मिलते! तबलीग़ क्यों मुबल्लिगे अलेहुस्सलाम की इल्लत बनती! ग्रेजुएट में सच और झूठ की परख, निगाह का फैलाव और जॉचने-तौलने की काबलियत होना जरूरी बात है। मेरी आँखे तो ग्रेजुएटो को देखकर नशे के दर्जे तक खुशी से भर उठती है। आप भी खुदा के फ़जल से अपनी किस्म की बहुत अच्छी मिसाल है, बिलकुल अप-टू-डेट। यह शेरवानी तो बरकत एण्ड को० की दुकान की सिली हुई होगी। जूते भी डासन के है। क्यो न हो। आप लोगों ने क़ौम की जिन्दगी के मेयार को बहुत ऊँचा बना दिया है और अब वह बहुत जल्द अपनी मजिल पर पहुँचेगी। ब्लैकबर्ड भी है, बेस्ट एण्ड की। रिस्टवाच भी है। बेशक अब कौमी बेडे को ख्वाजा खिजर की जरूरत भी नहीं। वह उनकी मिन्नत न करेगा।