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बड़े बाबू
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के कारण आपको माफ़ी ही क्यो न माँगनी पडे, लेकिन ज़बान की हिमायत बराबर ज़ोरदार तरीक़े से करते रहिए। खुलासा यह कि आपको जिसका खाना उसी का गाना होगा। आपको बातों से, काम से और दिल से अपने मालिक की भलाई मे और मजबूती से उसको जमाये रखने में लगे रहना पडेगा। अगर आप यह खयाल करते हों कि मालिक की खिदमत के ज़रिये कौम की खिदमत भी करूँगा तो यह झूठ बात है, पागलपन है, हिमाकत है। आप मेरा मतलब समझ गये होगे। फ़रमाइए, आप इस हद तक अपने को भूल सकते है?

मुझे जवाब देने मे जरा देर हुई। सच यह है कि मैं भी आदमी हूँ और बीसवी सदी का आदमी हूँ। मैं बहुत जागा हुआ न सही, मगर बिलकुल सोया हुआ भी नहीं हूँ। मै भी अपने मुल्क और कौम को बलन्दी पर देखना चाहता हूँ। मैंने तारीख पढ़ी है और उससे इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि मजहब दुनिया में सिर्फ़ एक है और उसका नाम है, दर्द। मज़हब की मौजूदा सूरत धड़ेबंदी के सिवाय और कोई हैसियत नही रखती। खतने या चोटी से कोई बदल नहीं जाता। पूजा के लिए कलीसा, मसजिद, मन्दिर की मैं बिलकुल जरूरत नहीं समझता। हाँ, यह मानता हूँ कि घमण्ड और खुदगरज़ी को दबाये रखने के लिए कुछ करना ज़रूरी है। इसलिए नहीं कि उससे मुझे जन्नत मिलेगी या मेरी मुक्ति होगी, बल्कि सिर्फ़ इसलिए कि मुझे दूसरों के हक छीनने से नफरत होगी। मुझमें खुदी का खासा जुज़ मौजूद है। यों अपनी खुशी से कहिए तो आपकी जूतियाँ सीधी करूँ लेकिन हुकूमत की बरदाश्त नही। महकूम बनना शर्मनाक समझता हूँ। किसी गरीब को जुल्म का शिकार होते देखकर मेरे खून में गर्मी पैदा हो जाती है। किसी से दबकर रहने से मर जाना बेहतर समझता हूँ। लेकिन खयाल हालतों पर तो फ़तह नहीं पा सकता। रोज़ी की फ़िक्र तो सबसे बड़ी है। इतने दिनों के बाद बड़े बाबू की निगाहे करम को अपनी ओर मुड़ते देखकर मै इसके सिवा कि अपना सिर झुका दूँ, दूसरा कर ही क्या सकता था। बोला--जनाब, मेरी तरफ़ से भरोसा रक्खे। मालिक की खिदमत में अपनी तरफ से कुछ उठा न रक्खूँगा।

'ग़ैरत को फ़ना कर देना होगा?'

'मजूर'।

'शराफ़त के जज्ब़ों को उठाकर ताक़ पर रख देना होगा?'

'मजूर।'

'मुखबिरी करनी पड़ेगी?'