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आखिरी तोहफ़ा


सारे शहर मे सिर्फ एक ऐसी दूकान थी, जहाॅ विलायती रेशमी साडी मिल सकती थी। और सभी दुकानदारों ने विलायती कपड़े पर काँग्रेस की मुहर लगवायी थी। मगर अमरनाथ की प्रेमिका की फरमाइश थी, उसको पूरा करना जरूरी था। वह कई दिन तक शहर की दुकानों का चक्कर लगाते रहे, दुगुना दाम देने पर तैयार थे, लेकिन कही सफल-मनोरथ न हुए और उसके तकाजे बराबर बढते जाते थे। होली आ रही थी। आखिर वह होली के दिन कौन-सी साड़ी पहनेगी। उसके सामने अपनी मजबूरी को जाहिर करना अमरनाथ के पुरुषोचित अभिमान के लिए कठिन था। उसके इशारे से वह आसमान के तारे तोड़ लाने के लिए भी तत्पर हो जाते। आखिर जब कही मकसद पूरा न हुआ, तो उन्होने उसी खास दुकान पर जाने का इरादा किया। उन्हे यह मालूम था कि उस दुकान पर धरना दिया जा रहा है। सुबह से शाम तक स्वयसेवक तैनात रहते है और तमाशाइयों को भी हरदम खासी भीड रहती है। इसलिए उस दुकान में जाने के लिए एक विशेष प्रकार के नैतिक साहस की जरूरत थी और यह साहस अमरनाथ में जरूरत से कम था। पढ़े-लिखे आदमी थे, राष्ट्रीय भावनाओ से भी अपरिचित न थे, यथाशक्ति स्वदेशी चीजे ही इस्तेमाल करते थे। मगर इस मामले में बहुत कट्टर न थे। स्वदेशी मिल जाय तो बेहतर वर्ना विदेशी ही सही--इस उसूल के माननेवाले थे। और खासकर जब उसकी फ़रमाइश थी तब तो कोई बचाव की सूरत ही न थी। अपनी ज़रूरतों को तो वह शायद कुछ दिनों के लिए टाल भी देते, मगर उसकी फ़रमाइश तो मौत की तरह अटल है। उससे मुक्ति कहाॅ! तय कर लिया कि आज साडी ज़रूर लायेंगे। कोई क्यों रोके? किसी को रोकने का क्या अधिकार है? माना स्वदेशी का इस्तेमाल अच्छी बात है लेकिन किसी को जबर्दस्ती करने का क्या हक? अच्छी आजादी की लड़ाई है जिसमे व्यक्ति की आज़ादी का इतनी बेदर्दी से खून हो!

यों दिल को मज़बूत करके वह शाम को दुकान पर पहुँचे। देखा तो पाँच वालण्टियर पिकेटिंग कर रहे है और दुकान के सामने सड़क पर हजारों तमाशाई