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गुप्त धन
 

खड़े है। सोचने लगे, दुकान में कैसे जायँ। कई बार कलेजा मजबूत किया और चले मगर बरामदे तक जाते-जाते हिम्मत ने जवाब दे दिया।

सयोग से एक जान-पहचान के पण्डितजी मिल गये। उनसे पूछा --क्यों भाई, यह धरना कब तक रहेगा? शाम तो हो गयी।

पण्डितजी ने कहा--इन सिरफिरो को सुबह और शाम से क्या मतलब, जब तक दुकान बन्द न हो जायगी, यहाँ से न टलेगे। कहिए, कुछ खरीदने का इरादा है? आप तो रेशमी कपड़ा नही खरीदते?

अमरनाथ ने विवशता की मुद्रा बनाकर कहा--मै तो नहीं खरीदता। मगर औरतो की फरमाइश को कसे टालूँ।

पण्डितजी ने मुस्कराकर कहा--वाह, इससे ज्यादा आसान तो कोई बात नहीं। औरतों को भी चकमा नही दे सकते? सौ हीले और हजार बहाने है।

अमरनाथ--आप ही कोई हीला सोचिए।

पण्डितजी--सोचना क्या है, यहाँ रात-दिन यही किया करते है। सौ-पचास हीले हमेशा जेबों मे पड़े रहते है। औरत ने कहा हार बनवा दो। कहा, आज ही लो। दो-चार रोज के बाद कहा, सुनार माल लेकर चम्पत हो गया। यह तो रोज का धन्धा है भाई। औरतो का काम फरमाइश करना है और मर्दो का काम उसे खूबसूरती से टालना है।

अमरनाथ--आप तो इस कला के पण्डित मालूम होते है!

पण्डितजी--क्या करे भाई, आबरू तो बचानी ही पडती है। सूखा जवाब दे तो शर्मिन्दगी अलग हो, बिगडे बह अलग से, समझे, हमारी परवाहही नहीं करते। आबरू का मामला है। आप एक काम कीजिए। यह तो आपने कहा ही होगा कि आजकल पिकेटिग है?

अमरनाथ--हाॅ, यह तो बहाना कर चुका भाई, मगर वह सुनती ही नहीं, कहती है क्या विलायती कपड़े दुनिया से उठ गये। मुझसे चले हो उड़ने!

पण्डितजी--तो मालूम होता है, कोई धुन की पक्की औरत है। अच्छा तो मैं एक तरकीब बताऊँ। एक खाली कार्ड का बकस ले लो, उसमे पुराने कपडे जलाकर भर लो। जाकर कह देना, मैं कपड़े लिये आता था, वालण्टियरों ने छीनकर जला दिये। क्यों, कैसी रहेगी?

अमरनाथ--कुछ जँचती नही। अजी, बीस एतराज करेगी, कही पर्दा फाश हो जाय तो मुफ्त़ को शर्मिन्दगी उठानी पड़े।