डाक्टर साहब ने सन्देहजनक उत्तर दिया––मैं आपको संशय में नहीं डालना चाहता। मेरा अनुमान है कि यह ट्युबरक्युलासिस है।
चैतन्यदास ने व्यग्र होकर कहा––तपेदिक?
डाक्टर––जी हाँ, उसके सभी लक्षण दिखायी देते हैं।
चैतन्यदास ने अविश्वास के भाव से कहा, मानो उन्हे कोई विस्मयकारी बात सुन पड़ी हो––तपेदिक हो गया!
डाक्टर ने खेद करते हुए कहा––यह रोग बहुत ही गुप्तरीति से शरीर में प्रवेश करता है।
चैतन्यदास––मेरे खानदान में तो यह रोग किसी को न था।
डाक्टर––सम्भव है, मित्रों से इसके जर्म (कीटाणु) मिले हों।
चैतन्यदास कई मिनट तक सोचने के बाद बोले––अब क्या करना चाहिए?
डाक्टर––दवा करते रहिये। अभी फेफड़ों तक असर नहीं हुआ है। इनके अच्छे होने की आशा है।
चैतन्यदास––आपके विचार में कब तक दवा का असर होगा?
डाक्टर––निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता। लेकिन तीन-चार महीने में ये स्वस्थ हो जायेंगे। जाड़ों में इस रोग का जोर कम हो जाया करता है।
चैतत्यदास––अच्छे हो जाने पर ये पढ़ने में परिश्रम कर सकेंगे?
डाक्टर––मानसिक परिश्रम के योग्य तो ये शायद ही हो सकें।
चैतन्यदास––किसी सैनेटोरियम (पहाड़ी स्वास्थ्यालय) में भेज दूँ तो कैसा हो?
डाक्टर––बहुत ही उत्तम।
चैतन्यदास––तब तो ये पूर्णरीति से स्वस्थ हो जायँगे?
डाक्टर––हो सकते हैं, लेकिन इस रोग को दबा रखने के लिए इनका मानसिक परिश्रम से बचना ही अच्छा है।
चैतन्यदास नैराश्य भाव से बोले––तब तो इनका जीवन ही नष्ट हो गया।
३
गर्मी बीत गयी। बरसात के दिन आये। प्रभुदास की दशा दिनोंदिन बिगड़ती गई। वह पड़े-पड़े बहुधा इस रोग पर की गई बडे-बड़े डाक्टरों की व्याख्याएँ पढ़ा करता था। उनके अनुभवों से अपनी अवस्था की तुलना किया करता। पहले