सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८४
गुप्त धन
 

गये। बुढ़िया गिर पड़ी और लगी कोसने--अरे अभागे, यह जवानी बहुत दिन न रहेगी, आँखों में चर्बी छा गयी है, धक्के देता चलता है!

अमरनाथ उसकी खुशामद करने लगे--भाई माफ़ करो, मुझे रात को कम सुझाई पड़ता है। ऐनक घर भूल आया।

बुढ़िया का मिजाज ठण्डा हुआ, आगे बढ़ी और आप भी चले। एकाएक कानों में आवाज आयी, 'बाबू साहब जरा ठहरिएगा' और वही केसरिया कपड़ोंवाली देवीजी आती हुई दिखायी दी।

अमरनाथ के पाँव बँध गये। इस तरह कलेजा मजबूत करके खड़े हो गये जैसे कोई स्कूली लड़का मास्टर की बेत के सामने खडा होता है।

देवीजी ने पास आकर कहा--आप तो ऐसे भागे कि मैं जैसे आपको काट खाऊँगी। आप जब पढ़े-लिखे आदमी होकर अपना धर्म नहीं समझते तो दुख होता है। देश की क्या हालत है, लोगो को खद्दर नहीं मिलता, आप रेशमी साड़ियाँ खरीद रहे हैं!

अमरनाथ ने लज्जित होकर कहा--मैं सच कहता हूँ देवीजी, मैंने अपने लिए नहीं खरीदी, एक साहब की फ़रमाइश थी।

देवीजी ने झोली से एक चूड़ी निकालकर उनकी तरफ बढाते हुए कहा--ऐसे हीले रोज़ ही सुना करती हूँ। या तो आप उसे वापस कर दीजिए या लाइए हाथ में आपको चूड़ी पहना दूँ।

अमरनाथ--शौक से पहना दीजिए। मैं उसे बड़े गर्व से पहनूँगा। चूड़ी उस बलिदान का एक चिह्न है जो देवियों के जीवन की विशेषता है। चूड़ियाँ उन देवियों के हाथ मे भी थी जिनके नाम सुनकर आज भी हम आदर से सिर झुकाते है। मैं तो उसे शर्म की बात नहीं समझता। आप अगर और कोई चीज पहनाना चाहें तो वह भी शौक से पहना दीजिए। नारी पूजा की वस्तु है, उपेक्षा की नहीं। अगर स्त्री, जो क़ौम को पैदा करती है, चूड़ी पहनना अपने लिए गौरव की बात समझती है तो मर्दो के लिए चूड़ी पहनना क्यो शर्म की बात हो?

देवीजी को उनकी इस निर्लज्जता पर आश्चर्य तो हुआ मगर वह इतनी आसानी से अमरनाथ को छोडनेवाली न थी। बोली--आप बातों के शेर मालूम होते है। अगर आप हृदय से स्त्री को पूजा की वस्तु मानते है, तो मेरी यह विनती क्यों नहीं मान जाते?

अमरनाथ--इसलिए कि यह साड़ी भी एक स्त्री की फ़रमाइश है।