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आखिरी तोहफ़ा
८५
 


देवी--अच्छा चलिए, मैं आपके साथ चलूँगी, ज़रा देखूँ आपकी देवीजी किस स्वभाव की स्त्री है।

अमरनाथ का दिल बैठ गया। बेचारा अभी तक बिन-ब्याहा था, इसलिए नही कि उसकी शादी न होती थी बल्कि इसलिए कि शादी को बह एक आजीवन कारावास समझता था। मगर वह आदमी रसिक स्वभाव के थे, शादी से अलग रहकर भी शादी के मजों से अपरिचित न थे। किसी ऐसे प्राणी की जरूरत उनके लिए अनिवार्य थी जिस पर वह अपने प्रेम को समर्पित कर सके, जिसकी तरावट से वह अपनी रूखी-सूखी जिन्दगी को तरो-ताज़ा कर सके, जिसके प्रेम की छाया में वह ज़रा देर के लिए ठण्डक पा सकें, जिसके दिल मे वह अपनी उमडी हुई जवानी की भावनाओं को बिखेरकर उनका उगना देख सके। उनकी नज़र ने मालती को चुना था जिसकी शहर मे धूम थी। इधर डेढ-दो साल से वह इसी खलिहान के दाने चुना करते थे। देवीजी के आग्रह ने उन्हें थोड़ी देर के लिए उलझन में डाल दिया। ऐसी शर्मिन्दगी उन्हें ज़िन्दगी में कभी न हुई थी। बोले--आज तो वह एक न्योते मे गयी है, घर मे न होंगी।

देवीजी ने अविश्वास से हँसकर कहा--तो मैं समझ गयी यह आपकी देवीजी का कुसूर नहीं, आपका कसूर है।

अमरनाथ ने लज्जित होकर कहा--मैं आपसे सच कहता हूँ आज वह घर पर नही।

देवी ने पूछा--कल आ जायेगी?

अमरनाथ बोले--हाँ, कल आ जायेगी।

देवी--तो आप यह साड़ी मुझे दे दीजिए और कल यही आ जाइएगा, मैं आपके साथ चलूँगी। मेरे साथ दो चार बहने भी होंगी।

अमरनाथ ने बिना किसी आपत्ति के वह साड़ी देवीजी को दे दी और बोले--बहुत अच्छा, मैं कल आ जाऊँगा। मगर क्या आपको मुझ पर विश्वास नहीं है जो साड़ी की ज़मानत जरूरी है?

देवीजी ने मुस्कराकर कहा--सच्ची बात तो यही है कि मुझे आप पर विश्वास नहीं।

अमरनाथ ने स्वाभिमानपूर्वक कहा--अच्छी बात है, आप इसे ले जायँ।

देवी ने क्षण भर बाद कहा--शायद आपको बुरा लग रहा हो कि कहीं साड़ी गुम न जाय। इसे आप लेते जाइए, मगर कल आइए ज़रूर।