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गुप्त धन
 


अमरनाथ--मुझ जैसे आवारा नौजवान के लिए उस मन्दिर के दरवाज़े बन्द है।

मालती--बहुत सुन्दर होगी।

अमरनाथ--न सुन्दर है, न रूपवाली, न ऐसी अदाएँ कुछ, न मधुरभाषिणी, न तन्वगी। बिलकुल एक मामूली मासूम लड़की है। लेकिन जब मेरे हाथ से उसने साड़ी छीन ली तो मैं क्या कर सकता था। मेरी ग्रैरत ने तो गवारा न किया कि उसके हाथ से साड़ी छीन लूँ। तुम्ही इन्साफ करो, वह दिल मे क्या कहती?

मालती--तो तुम्हें इसकी ज्य़ादा परवाह है कि वह अपने दिल मे क्या कहेगी। मैं क्या कहूँगी, इसकी जरा भी परवाह न थी! मेरे हाथ से कोई मर्द मेरी कोई चीज छीन ले तो देखूँ, चाहे बह दूसरा कामदेव ही क्यों न हो।

अमरनाथ--अब इसे चाहे मेरी कायरता समझो, चाहे हिम्मत की कमी, चाहे शराफ़त, मै उसके हाथ से न छीन सका।

मालती--तो कल वह साड़ी लेकर आयेगी, क्यों?

अमरनाथ--जरूर आयेगी।

मालती--तो जाकर मुँह धो आओ। तुम इतने नादान हो, यह मुझे मालूम न था। साड़ी देकर चले आये, अब कल वह आपको देने आयेगी! कुछ भंग तो नहीं खा गये।

अमरनाथ--खैर, इसका इम्तहान कल हो ही जायगा, अभी से क्यों बदगुमानी करती हो। तुम शाम को ज़रा देर के लिए मेरे घर तक चली चलना।

मालती--जिससे आप कहें कि यह मेरी बीवी है!

अमरनाथ--मुझे क्या खबर थी कि वह मेरे घर आने के लिए तैयार हो जायगी, नहीं तो कोई और बहाना कर देता।

मालती--तो आपकी साडी आपको मुबारक हो, मैं नहीं जाती।

अमरनाथ--मैं तो रोज़ तुम्हारे घर आता हूँ, तुम एक दिन के लिए भी नहीं चल सकतीं?

मालती ने निष्ठुरता से कहा--अगर मौक़ा आ जाय तो तुम अपने को मेरा शौहर कहलाना पसन्द करोगे? दिल पर हाथ रखकर कहना।

अमरनाथ दिल में कट गये, बात बनाते हुए बोले--मालती, तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो। बुरा न मानना, मेरे व तुम्हारे बीच प्यार और मुहब्बत दिखलाने के बावजूद एक दूरी का पर्दा पड़ा था। हम दोनों एक-दूसरे की हालत