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आखिरी तोहफ़ा
८९
 

को समझते थे और इस पर्व को हटाने की कोशिश न करते थे। यह पर्दा हमारे सबंधों की अनिवार्य शर्त था। हमारे बीच एक व्यापारिक समझौता-सा हो गया। हम दोनों उसकी गहराई मे जाते हुए डरते थे। नहीं, बल्कि मै डरता था और तुम जान-बूझकर न जाना चाहती थी। अगर मुझे विश्वास हो जाता कि तुम्हें जीवन-सहचरी बनाकर मै वह सब कुछ पा जाऊँगा जिसका मैं अपने को अधिकारी समझता हूँ तो मै अब तक कभी का तुमसे इसकी याचना कर चुका होता। लेकिन तुमने कभी मेरे दिल मे यह विश्वास पैदा करने की परवाह न की। मेरे बारे मे भी तुम्हे यह शक है। मै नहीं कह सकता, तुम्हें यह शक करने का मैंने कोई मौका नही दिया और मैं कह सकता हूँ कि मै उससे कहीं बेहतर शौहर बन सकता हूॅ जितनी तुम बीवी बन सकती हो। मेरे लिए सिर्फ एतबार की जरूरत है और तुम्हारे लिए ज्य़ादा वजनी और ज्य़ादा भौतिक चीजों की। मेरी स्थायी आमदनी पाॅच सौ से ज्य़ादा नहीं, तुमको इतने से सतोष न होगा। मेरे लिए सिर्फ इस इत्मीनान की ज़रूरत है कि तुम मेरी और सिर्फ मेरी हो। बोलो मजूर है?

मालती को अमरनाथ पर रहम आ गया। उसकी बातों मे जो सच्चाई भरी हुई थी, उससे वह इनकार न कर सकी। उसे यह भी यकीन हो गया कि अमरनाथ की वफ़ा के पैर डगमगायेगे नहीं। उसे अपने ऊपर इतना भरोसा था कि वह उसे रस्सी से मज़बूत जकड़ सकती है, लेकिन खुद जकडे जाने पर वह अपने को तैयार न कर सकी। उसकी जिन्दगी मुहब्बत की बाजीगरी मे, प्रेम के प्रदर्शन में गुजरी थी। वह कभी इस, कभी उस शाख पर चहकती फिरती थी, बेकैद, आजाद, बेबन्द। क्या वह चिड़िया पिंजरे में खुश रह सकती है जिसकी जबान तरह-तरह के मज़ों की आदी हो गयी हो? क्या वह सूखी रोटी से तृप्त हो सकती है? इस अनुभूति ने उसे पिघला दिया। बोली--आज तुम बड़ा ज्ञान बघार रहे हो?

अमरनाथ मैंने तो केबल यथार्थ कहा है। मालती--अच्छा मै कल चलूँगी, मगर एक घण्टे से ज्य़ादा वहाॅ न रहूँगी।

अमरनाथ का दिल शुकिये से भर उठा। बोला--मै तुम्हारा बहुत कृतज्ञ हूँ मालती। अब मेरी आबरू बच जायगी। नही तो मेरे लिए घर से निकलना मुश्किल हो जाता। अब देखना यह है कि तुम अपना पार्ट कितनी खूबसूरती से अदा करती हो।

मालती--उसकी तरफ़ से तुम इत्मीनान रखो। ब्याह नही किया मगर