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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/८६

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गुप्त धन
 

बराते देखी है। मगर मै डरती हूॅ कही तुम मुझसे दगा न कर रहे हो। मर्दो का क्या एतबार!

अमरनाथ ने निश्छल भाव से कहा--नही मालती, तुम्हारा सन्देह निराधार है। अगर यह जजीर पैरों में डालने की इच्छा होती तो कभी का डाल चुका होता। फिर मुझ जैसे वासना के बदों का वहाॅ गुजर ही कहाॅ।

दूसरे दिन अमरनाथ दस बजे ही दर्ज़ी की दुकान पर जा पहुॅचे और सिर पर सवार होकर कपड़े तैयार कराये। फिर घर आकर नये कपडे पहने और मालती को बुलाने चले। वहाॅ देर हो गयी। उसने ऐसा बनाव-सिंगार किया कि जैसे आज बहुत बड़ा मोर्चा जीतना है।

अमरनाथ ने कहा--वह ऐसी सुन्दरी नहीं है जो तुम इतनी तैयारियाँ कर रही हो।

मालती ने बालों मे कंघी करते हुए कहा--तुम इन बातो को नही समझ सकते, चुपचाप बैठे रहो।

अमरनाथ--लेकिन देर जो हो रही है।

मालती--कोई बात नहीं।

भय की उस सहज आशंका ने, जो स्त्रियों की विशेषता है, मालती को और भी अधिक सतर्क कर दिया था। अब तक उसने कभी अमरनाथ की ओर विशेषरूप से कोई कृपा न की थी। वह उससे काफ़ी उदासीनता का बर्ताव करती थी। लेकिन कल अमरनाथ की भगिमा से उसे एक संकट की सूचना मिल चुकी थी और वह उस संकट का अपनी पूरी शक्ति से मुकाबला करना चाहती थी। शत्रु और अपदार्थ समझना स्त्रियों के लिए कठिन है। आज अमरनाथ को अपने हाथ से निकलते देखकर वह अपनी पकड़ को मजबूत कर रही थी। अगर इस तरह उसकी चीज़े एक-एक करके निकल गयी तो फिर वह अपनी प्रतिष्ठा कब तक बनाये रख सकेगी? जिस चीज़ पर उसका कब्जा, उसकी तरफ़ कोई आँख ही क्यो उठाये? राजा भी तो एक-एक अगुल जमीन के पीछे जान देता है। वह इस नये शिकारी को हमेशा के लिए अपने रास्ते से हटा देना चाहती थी, उसके जादू को तोड़ देना चाहती थी।

शाम को वह परी-जैसी, अपनी नौकरानी और नौकर को साथ लेकर अमरनाथ के घर चली। अमरनाथ ने सुबह दस बजे तक मर्दाने घर को जनानेपन का रंग