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आखिरी तोहफ़ा
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देने में खर्च किया था। ऐसी तैयारियाँ कर रखी थी कि जैसे कोई अफसर मुआइना करनेवाला हो। मालती ने घर मे पैर रखा तो उसकी सफाई और सजावट देखकर बहुत खुश हुई। जनाने हिस्से में कई कुर्सियाॅ रखी थी। बोली--अब लाओ अपनी देवीजी को। मगर जल्द आना। वर्ना मैं चली जाऊँगी।

अमरनाथ लपके हुए विलायती कपडे की दुकान पर गये। आज भी धरना था। तमाशाइयो की वही भीड। वहाॅ देवीजी न थी। पीछे की तरफ गये तो देवीजी एक लड़की के साथ उसी भेस में खडी थी।

अमरनाथ ने कहा--माफ कीजिएगा, मुझे देर हो गयी। मैं आपके बादे की याद दिलाने आया हूॅ।

देवीजी ने कहा--मैं तो आपका इन्तजार कर रही थी। चलो सुमित्रा, जरा आपके घर हो आये। कितनी दूर है?

अमरनाथ--बहुत पास है। एक ताँगा कर लूँगा।

पन्द्रह मिनट मे अमरनाथ दोनों को लिये घर जा पहुॅचे। मालती ने देवीजी को देखा और देवीजी ने मालती को। एक किसी रईस का महल था, आलीशान; दूसरी किसी फ़कीर की कुटिया थी, छोटी-सी, तुच्छ। रईस के महल और प्रदर्शन था, फ़कीर की कुटिया में सादगी और सफाई। मालती ने देखा, भोली लडकी है जिसे किसी तरह सुन्दर नहीं कह सकते। पर उसके भोलेपन और सादगी मे जो आकर्षण था, उससे वह प्रभावित हुए बिना न रह सकी। देवीजी ने भी देखा, एक बनी-सँवरी, बेधड़क और घमण्डी औरत है जो किसी न किसी वजह से उस घर मे अजनबी-सी मालूम हो रही है जैसे कोई जगली जानवर पिंजरे में आ गया हो।

अमरनाथ सिर झुकाये मुजरिमों की तरह खड़े थे और ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि किसी तरह आज पर्दा रह जाये।

देवी ने आते ही कहा--बहन, आप अब भी सिर से पॉव तक विदेशी कपड़े पहने हुई है?

मालती ने अमरनाथ की तरफ देखकर कहा--मै विदेशी और देशी के फेर में नहीं पड़ती। जो यह लाकर देते है वह पहनती हूँ। लानेवाले है ये, मैं थोड़े ही बाजार जाती हूँ।

देवी ने शिकायतभरी ऑखों से अमरनाथ की तरफ देखकर कहा --आप तो कहते थे यह इनकी फ़रमाइश है, मगर आप ही का क़सूर निकल आया।