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गुप्त धन
 


मालती--मेरे सामने इनसे कुछ मत कहो। तुम बाज़ार में भी दूसरे मर्दो से बाते कर सकती हो, जब वह बाहर चले जायँ तो जितना जी चाहे कह-सुन लेना। मैं अपने कानों से नही सुनना चाहती।

देवीजी--मैं कुछ कहती नहीं और बहनजी, मै कह ही क्या सकती हूँ कोई जबर्दस्ती तो है नही, बस विनती कर सकती हूँ।

मालती--इसका मतलब यह है कि इन्हें अपने देश की भलाई का ज़रा भी खयाल नही, उसका ठेका तुम्हीं ने ले लिया है। पढ़े-लिखे आदमी है, दस आदमी इज़्ज़त करते है, अपना नफ़ा-नुकसान समझ सकते है। तुम्हारी क्या हिम्मत कि इन्हें उपदेश देने बैठो, या सबसे ज्य़ादा अक्ल़मन्द तुम्हीं हो?

देवीजी--आप मेरा मतलब गलत समझ रही है बहन।

मालती--हाॅ गलत तो समझूँगी ही, इतनी अक़्ल कहाॅ से लाऊँ कि आपकी बातो का मतलब समझूँ! खद्दर की साड़ी पहन ली, झोली लटका ली, एक बिल्ला लगा लिया, बस अब अख्तियार है जहाॅ चाहे आये-जाये, जिससे चाहे हॅसे-बोले, घर मे कोई पूछता नहीं तो जेलखाने का भी क्या डर! मै इसे हुड़दगापन समझता हूँ, जो शरीफ़ों की बहू-बेटियों को शोभा नहीं देता।

अमरनाथ दिल में कटे जा रहे थे। छिपने के लिए बिल ढूँढ रहे थे। देवी की पेशानी पर जरा बल न था। लेकिन आँखे डबडबा रही थी।

अमरनाथ ने मालती से ज़रा तेज़ स्वर में कहा--क्यों खामखाह किसी का दिल दुखाती हो? यह देवियाँ अपना ऐश-आराम छोड़कर यह काम कर रही है, क्या तुम्हे इसकी बिलकुल खबर नही?

मालती--रहने दो, बहुत तारीफ़ न करो। ज़माने का रग ही बदला जा रहा है, मैं क्या करूॅगी और तुम क्या करोगे। तुम मर्दो ने औरतों को घर मे इतनी बुरी तरह कैद किया कि आज वे रस्म-रिवाज, शर्म-हया को छोड़कर निकल आयी है और दिनो मे लोगों की हुकूमत का खातमा हुआ जाता है। विलायती और विदेशी तो दिखाने के लिए है, असल में यह आज़ादी की ख्वाहिश है जो तुम्हे हासिल है। तुम अगर दो-चार शादियाँ कर सकते हो तो औरत क्यों न करे! सच्ची बात यह है, अगर ऑखे है तो अब खोलकर देखो। मुझे वह आजादी न चाहिए। यहाॅ तो लाज ढोते है और मैं शर्म-हया को अपना सिंगार समझती हूँ।

देवीजी ने अमरनाथ की तरफ़ फ़रियाद की आँखों से देखकर कहा--बहन ने