पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
आखिरी तोहफ़ा
९३
 

औरतों को जलील करने की क़सम खा ली है। मैं बड़ी-बड़ी उम्मीदें लेकर आयी थी, मगर शायद यहाँ से नाकाम जाना पड़ेगा।

अमरनाथ ने वह साड़ी उसको देते हुए कहा--नहीं, बिलकुल नाकाम तो आप नहीं जायेंगी, हाँ जैसी कामयाबी की आपको उम्मीद थी वह न होगी।

मालती ने डपटते हुए कहा--वह मेरी साड़ी है, तुम उसे नहीं दे सकते!

अमरनाथ ने शर्मिन्दा होते हुए कहा--अच्छी बात है, न दूँगा। देवीजी, ऐसी हालत में तो शायद आप मुझे माफ करेगी।

देवीजी चली गयीं तो अमरनाथ ने त्योरियाँ बदलकर कहा--यह तुमने आज मेरे मुँह में कालिख लगा दी। तुम इतनी बदतमीज़ और बदज़बान हो, मुझे मालूम न था।

मालती ने रोषपूर्ण स्वर में कहा--तो अपनी साडी उसे दे देती? मैं ऐसी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली। अब तो बदतमीज भी हूँ, बदज़बान भी, उस दिन इन बुराइयों मे से एक भी न थी जब मेरी जूतियाॅ सीधी करते थे! इस छोकरी ने मोहिनी डाल दी। जैसी रूह वैसे फरिश्ते! मुबारक हो।

यह कहती हुई मालती बाहर निकली। उसने समझा था ज़बान चलाकर और रूप की ताकत से वह उस लड़की को उखाड़ फेकेगी लेकिन जब मालूम हुआ कि अमरनाथ आसानी से काबू मे आनेवाला नहीं तो उसने फटकार बतायी। इन दामों अगर अमरनाथ मिल सकता था तो बुरा न था। इससे ज्यादा कीमत वह उसके लिए दे न सकती थी।

अमरनाथ उसके साथ दरवाज़े तक आये। जब वह ताॅगे पर बैठी तो विनती करते हुए बोले--यह साड़ी दे दो न मालती, मैं तुम्हें कल इससे कही अच्छी साड़ी ला दूँगा।

मगर मालती ने रूखेपन से कहा--यह साड़ी तो अब लाख रुपये पर भी नहीं दे सकती!

अमरनाथ ने त्योरियाँ बदलकर जवाब दिया--अच्छी बात है, ले जाओ मगर समझ लो कि यह मेरा आखिरी तोहफ़ा है।

मालती ने होंठ चबाकर कहा--इसकी परवाह नहीं। तुम्हारे बगैर मैं मर न जाऊँगी, इसका तुम्हें यकीन दिलाती हूँ!

—'आखिरी तोहफा' से