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क़ातिल


जाडो की रात थी। दस बजे ही सडकें बन्द हो गयी थी और गलियों मे सन्नाटा था। बूढ़ी बेवा माॅ ने अपने नौजवान बेटे धर्मवीर के सामने थाली परोसते हुए कहा--तुम इतनी रात तक कहाँ रहते हो बेटा? रखे-रखे खाना ठडा हो जाता है। चारो तरफ़ सोता पड़ गया। आग भी तो इतनी नही रहती कि इतनी रात तक बैठी तापती रहूँ।

धर्मवीर हृष्ट-पुष्ट, सुन्दर नवयुवक था। थाली खीचता हुआ बोला-- अभी तो दस भी नही बजे अम्माॅ। यहाॅ के मुर्दादिल आदमी सरे-शाम ही सो जायॅ तो कोई क्या करे। योरोप मे लोग बारह-एक बजे तक सैर-सपाटे करते रहते है। जिन्दगी के मज़े उठाना कोई उनसे सीख ले। एक बजे से पहले तो कोई सोता ही नही।

मॉ ने पूछा--आठ-दस बजे सोकर उठते भी होगे।

धर्मवीर ने पहलू बचाकर कहा--नही, वह छः बजे ही उठ बैठते है। हम लोग बहुत सोने के आदी है। दस से छ: बजे तक, आठ घण्टे होते है। चौबीस घटों मे आठ घटे आदमी सोये तो काम क्या करेगा? यह बिलकुल गलत है कि आदमी को आठ घण्टे सोना चाहिए। इन्सान जितना कम सोये, उतना ही अच्छा। हमारी सभा ने अपने नियमों में दाखिल कर लिया है कि उसके मेम्बरो को तीन घण्टे से ज्य़ादा न सोना चाहिए।

माॅ इस सभा का जिक्र सुनते-सुनते तग आ गयी थी। यह न खाओ, वह न खाओ, यह न पहनो, वह न पहनो, न ब्याह करो, न शादी करो, न नौकरी करो। न चाकरी करो, यह सभा क्या लोगों को संन्यासी बनाकर छोड़ेगी? इतना त्याग तो सन्यासी ही कर सकता है। त्यागी सन्यासी भी तो नहीं मिलते। उनमें भी ज्य़ादातर इन्द्रियो के गुलाम, नाम के त्यागी है। आज सोने की कैद भी लगा दी। अभी तीन महीने का घूमना खत्म हुआ। जाने कहाॅ-कहाँ मारे-मारे फिरते है। अब बारह बजे खाइए। या कौन जाने रात को खाना ही उड़ा दे। आपत्ति के स्वर में बोली--तभी तो यह सूरत निकल आयी है कि चाहो तो एक-एक हड्डी