गिन लो। आखिर सभावाले कोई काम भी करते है या सिर्फ आदमियो पर करें ही लगाया करते है?
धर्मवीर बोला--जो काम तुम करती हो वही हम करते है। तुम्हारा उद्देश्य भी राष्ट्र की सेवा करना है, हमारा उद्देश्य भी राष्ट्र की सेवा करना है।
बूढी विधवा आजादी की लड़ाई मे दिलो-जान से शरीक थी। दस साल पहले उसके पति ने एक राजद्रोहात्मक भाषण देने के अपराध मे सज़ा पायी थी। जेल में उसका स्वास्थ्य बिगड़ गया और जेल ही मे उसका स्वर्गवास हो गया। तब से यह विधवा बडी सच्चाई और लगन से राष्ट्र की सेवा मे लगी हुई थी। शुरू मे उसका नौजवान बेटा भी स्वयसेवको मे शामिल हो गया था। मगर इधर पाॅच महीनो से वह इस नयी सभा मे शरीक हो गया और उसको जोशीले कार्यकर्ताओं मे समझा जाता था।
माॅ ने सदेह के स्वर मे पूछा--तो तुम्हारी सभा का भी कोई दफ़्तर है?
'हाॅ है।'
'उसमें कितने मेम्बर है?'
'अभी तो सिर्फ पचीस मेम्वर है? लेकिन वह पचीस आदमी जो कुछ कर सकते है, वह तुम्हारे पचीस हजार भी नहीं कर सकते। देखो अम्माॅ, किसी से कहना मत वर्ना सबसे पहले मेरी जान पर आफत आयेगी। मुझे उम्मीद नहीं कि पिकेटिग और जुलूसो से हमे आजादी हासिल हो सके। यह तो अपनी कमजोरी और बेबसी का साफ़ एलान है। झडियाँ निकालकर और गीत गाकर कौमे नहीं आजाद हुआ करती। यहाँ के लोग अपनी अकल काम नहीं लेते। एक आदमी ने कहा--यो स्वराज्य मिल जायगा। बस ऑखे बन्द करके उसके पीछे हो लिये। वह आदमी गुमराह है और दूसरों को भी गुमराह कर रहा है। यह लोग दिल मे इस खयाल से खुश हो ले कि हम आजादी के करीब आते-जाते है। मगर मुझे तो काम करने का यह ढग बिलकुल बच्चो का खेल-सा मालूम होता है। लड़को के रोने-धोने और मचलने पर खिलौने और मिठाइयाॅ मिला करती है। वही इन लोगो को मिल जायगा। असली चीज तभी मिलेगी, जब हम उसकी कीमत देने को तैयार होगे।'
माॅ ने कहा--उसकी कीमत क्या हम नही दे रहे है? हमारे लाखों आदमी जेल नहीं गये? हमने डडे नही खाये? हमने अपनी जायदादे नहीं ज़ब्त करायीं?