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क़ातिल
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बेवकूफी है। हम लोग ऐसी हिकमत से काम करना चाहते हैं कि कोई गिरफ़्तार न हो।

माॅ के चेहरे पर अब डर की जगह शर्मिन्दगी की झलक नज़र आयी। बोली--यह तो उससे भी बुरा है। बेगुनाह सजा पायें और कातिल चैन से बैठे रहे! यह शर्मनाक हरकत है। मैं इसे कमीनापन समझती हूँ! किसी को छिपकर कत्ल करना दगाबाजी है, मगर अपने बदले अपने बेगुनाह भाइयों को फँसा देना देशद्रोह है। इन बेगुनाहों का खून भी कातिल की गर्दन पर होगा।

धर्मवीर ने अपनी माँ की परेशानी का मजा लेते हुए कहा--अम्माॅ, तुम इन बातों को नही समझती। तुम अपने धरने दिये जाओ, जुलूस निकाले जाओ। हम जो कुछ करते है, हमे करने दो। गुनाह और सवाब, पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, यह निरर्थक शब्द हैं। जिस काम को तुम पाप समझती हो, उसे मैं पुण्य समझता हूँ। तुम्हें कैसे समझाऊँ कि यह सापेक्ष शब्द है। तुमने भगवतगीता तो पढ़ी है। कृष्ण भगवान ने साफ कहा है--मारनेवाला मैं हूँ, जिलानेवाला मै हूँ, आदमी न किसी को मार सकता है, न जिला सकता है। फिर कहाँ रहा तुम्हारा पाप? मुझे इस बात की क्यो शर्म हो कि मेरे बदले कोई दूसरा मुजरिम क़रार दिया गया। यह व्यक्तिगत लडाई नही, इग्लैण्ड की सामूहिक शक्ति से युद्ध है। मैं मरूँ या मेरे बदले कोई दूसरा मरे, इसमे कोई अन्तर नही। जो आदमी राष्ट्र की ज़्यादा सेवा कर सकता है, उसे जीवित रहने का ज्य़ादा अधिकार है।

मॉ आश्चर्य से लड़के का मुँह देखने लगी। उससे बहस करना बेकार था। अपनी दलीलों से वह उसे कायल न कर सकती थी। धर्मबीर खाना खाकर उठ गया। मगर वह ऐसी बैठी रही कि जैसे उसे लकवा मार गया हो। उसने सोचा--कही ऐसा तो नहीं कि वह किसी को कत्ल कर आया हो या कल्ल करने जा रहा हो। इस विचार से उसके शरीर मे कँपकँपी आ गयी। आम लोगो की तरह हत्या और घृणा उसके शरीर के कण-कण मे भरी हुई थी। उसका अपना बेटा खून करे, इससे ज्य़ादा लज्जा, अपमान, घृणा की बात उसके लिए और क्या हो सकती थी। वह राष्ट्र सेवा की उस कसौटी पर जान देती थी जो त्याग, सदाचार, सच्चाई और साफदिली का वरदान है। उसकी ऑखों मे राष्ट्र का सेवक वह था जो नीच से नीच प्राणी का दिल भी न दुखाये, बल्कि ज़रूरत पड़ने पर खुशी से अपने को बलिदान कर दे। अहिंसा उसकी नैतिक भावनाओं का सबसे प्रधान अग थी। अगर धर्मवीर किसी गरीब की हिमायत में गोली का निशाना