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गुप्त धन
 

बन जाता तो वह रोती जरूर मगर गर्दन उठाकर। उसे गहरा शोक होता, शायद इस शोक में उसकी जान भी चली जाती। मगर इस शोक में गर्व मिला हुआ होता। लेकिन वह किसी का खून कर आये यह एक भयानक पाप था, कलक था। लडके को रोके कैसे, यही सवाल उसके सामने था। वह यह नौबत हरगिज न आने देगी कि उसका बेटा खून के जुर्म मे पकड़ा जाय। न उसे यही बरदाश्त था कि उसके जुर्म की सजा बेगुनाहों को मिले। उसे ताज्जुब हो रहा था, लडके में यह पागलपन आया क्योकर? वह खाना खाने बैठी मगर कौर गले के नीचे न जा सका। कोई जालिम हाथ धर्मवीर को उसकी गोद से छीने लेता है। वह उस हाथ को हटा देना चाहती थी। अपने जिगर के टुकड़े को वह एक क्षण के लिए भी अलग न करेगी। छाया की तरह उसके पीछ-पीछे रहेगी किसकी मजाल है, जो उसके लडके को उसकी गोद से छीने!

धर्मवीर बाहर के कमरे मे सोया करता था। उसे ऐसा लगा कि कही वह चला न गया हो। फ़ौरन उसके कमरे में आयी। धर्मवीर के सामने दीवट पर दिया जल रहा था। वह एक किताब खोले पढ़ता-पढ़ता सो गया था। किताब उसके सीने पर पड़ी थी। माँ ने वही बैठकर अनाथ की तरह बडी सच्चाई और विनय के साथ परमात्मा से प्रार्थना की कि लडके का हृदय-परिवर्तन कर दे। उसके चेहरे पर अब भी वही भोलापन, वही मासूमियत थी जो पन्द्रह-बीस साल पहले नजर आती थी। कर्कशता या कठोरता का कोई चिह्न न था। मॉ को सिद्धांत-परता एक क्षण के लिए ममता के ऑचल मे छिप गयी। मॉ ने हृदय से बेटे की हार्दिक भावनाओं को देखा। इस नौजवान के दिल मे सेवा की कितनी उमग है, कौम का कितना दर्द है, पीडितों से कितनी सहानुभूति है। अगर इसमें बूढो की-सी सूझ-बूझ, धीमी चाल और धैर्य हैं तो इसका क्या कारण है। जो व्यक्ति प्राण जैसी प्रिय वस्तु को बलिदान करने के लिए तत्पर हो, उसकी तडप और जलन का कौन अन्दाज़ा कर सकता है। काश यह जोश, यह दर्द हिंसा के पजे से निकल सकता तो जागरण की प्रगति कितनी तेज हो जाती!

माँ की आहट पाकर धर्मबीर चौक पड़ा और किताब सम्हालता हुआ बोला--तुम कब आ गयीं अम्मॉ? मुझे तो न जाने कब नीद आ गयी।

माँ ने दीवट को दूर हटाकर कहा--चारपाई के पास दिया रखकर न सोया करो। इससे कभी-कभी दुर्घटनाएँ हो जाया करती हैं। और क्या सारी रात