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क़ातिल
९९
 

पढते ही रहोगे? आधी रात तो हुई, आराम से सो जाओ। मैं भी यही लेटी जाती हूँ। मुझे अन्दर न जाने क्यों डर लगता है।

धर्मवीर--तो मै एक चारपाई लाकर डाले देता हूॅ।

'नहीं, मै यहीं जमीन पर लेटी जाती हूॅ।'

'वाह, मैं चारपाई पर लेटूँ और तुम ज़मीन पर पड़ी रहो। तुम चारपाई पर आ जाओ।'

'चल, मै चारपाई पर लेटूँ और तू ज़मीन पर पड़ा रहे, यह तो नही हो सकता।'

'मैं चारपाई लिये आता हूँ। नहीं तो मैं भी अन्दर ही लेटता हूॅ। आज आप डरी क्यों?'

'तुम्हारी बातो ने डरा दिया। तू मुझे भी क्यों अपनी सभा में नही शरीक कर लेता?'

धर्मवीर ने कोई जवाब न दिया। बिस्तर और चारपाई उठाकर अन्दरवाले कमरे में चला। मॉ आगे-आगे चिराग दिखाती हुई चली। कमरे में चारपाई डालकर उस पर लेटता हुआ बोला--अगर तुम मेरी सभा में शरीक हो जाओ तो क्या पूछना। बेचारे कच्ची-कच्ची रोटियाॅ खाकर बीमार हो रहे है। उन्हें अच्छा खाना मिलने लगेगा। फिर ऐसी कितनी ही बाते है जिन्हे एक बूढ़ी स्त्री जितनी आसानी से कर सकती है, नौजवान हरगिज नहीं कर सकते। मसलन किसी मामले का सुराग लगाना, औरतों में हमारे विचारो का प्रचार करना। मगर तुम दिल्लगी कर रही हो!

माॅ ने गम्भीरता से कहा--नहीं बेटा, दिल्लगी नहीं कर रही। दिल से कह रही हूँ। माॅ का दिल कितना नाजुक होता है, इसका अन्दाजा तुम नहीं कर सकते। तुम्हे इतने बड़े खतरे में अकेला छोड़कर मै घर में नहीं बैठ सकती। जब तक मुझे कुछ न मालूम था, दूसरी बात थी। लेकिन अब यह बाते जान लेने के बाद मैं तुमसे अलग नही रह सकती। मैं हमेशा तुम्हारे बगल मे रहूँगी और अगर कोई ऐसा मौक़ा आया तो तुमसे पहले मैं अपने को कुर्बान करूँगी। मरते वक़्त तुम मेरे सामने होगे। मेरे लिए यही सबसे बड़ी खुशी है। यह मत समझो कि मैं नाज़ुक मौक़ों पर डर जाऊॅगी, चीखूँगी, चिल्लाऊॅगी। हरगिज नहीं। सख्त से सख्त खतरो के सामने भी तुम मेरी ज़बान से एक चीख न सुनोगे। अपने बच्चे की हिफ़ाजत के लिए गाय भी शेरनी बन जाती है।