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गुप्त धन
 


धर्मवीर ने भक्ति से विह्वल होकर माँ के पैरों को चूम लिया। उसकी दृष्टि में वह कभी इतने आदर और स्नेह के योग्य न थी।

दूसरे ही दिन परीक्षा का अवसर उपस्थित हुआ। यह दो दिन बुढिया ने रिवाल्वर चलाने के अभ्यास मे खर्च किये। पटाखे की अवाज़ पर कानों पर हाथ रखनेवाली, अहिंसा और धर्म की देवी, इतने साहस से रिवाल्वर चलाती थी और उसका निशाना इतना अचूक होता था कि सभा के नौजवानों को भी हैरत होती थी।

पुलिस के सबसे बडे अफसर के नाम मौत का परवाना निकला और यह काम धर्मवीर के सुपुर्द हुआ।

दोनों घर पहुॅचे तो माॅ ने पूछा--क्यों बेटा, इस अफसर ने तो कोई ऐसा काम नहीं किया फिर सभा ने क्यों उसको चुना?

धर्मवीर माँ की सरलता पर मुस्कराकर बोला--तुम समझती हो, हमारे कानिस्टिबिल और सब-इन्सपेक्टर और सुपरिण्टेण्डेण्ट जो कुछ करते है, अपनी खुशी से करते है? वे लोग जितने अत्याचार करते है, उनके लिए यही आदमी जिम्मेदार है। और फिर हमारे लिए तो इतना ही काफी है कि वह उस मशीन का एक खास पुर्ज़ा है जो हमारे राष्ट्र को चरम निर्दयता से बर्बाद कर रही है। लड़ाई में व्यक्तिगत बातों से कोई प्रयोजन नहीं, वहाँ तो विरोधी पक्ष का सदस्य होना ही सबसे बड़ा अपराध है।

माँ चुप हो गयी। क्षण भर बाद डरते-डरते बोली--बेटा, मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं माॅगा। अब एक सवाल करती हूँ, उसे पूरा करोगे?

धर्मवीर ने कहा--यह पूछने की कोई ज़रूरत नहीं अम्माॅ, तुम जानती हो मैं तुम्हारे किसी हुक्म से इनकार नहीं कर सकता।

मॉ--हाँ बेटा, यह जानती हूँ। इसी वजह से मुझे यह सवाल करने की हिम्मत हुई। तुम इस सभा से अलग हो जाओ। देखो, तुम्हारी बूढ़ी माॅ हाथ जोड़कर तुमसे यह भीख माँग रही है।

और वह हाथ जोड़कर भिखारिन की तरह बेटे के सामने खड़ी हो गयी। धर्मवीर ने कहकहा मारकर कहा--यह तो तुमने बेढब सवाल किया, अम्माॅ। तुम जानती हो इसका नतीजा क्या होगा? जिन्दा लौटकर न आऊँगा। अगर