पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
क़ातिल
१०१
 

यहाँ से कही भाग जाऊॅ तो भी जान नही बच सकती। सभा के सब मेम्बर ही मेरे खून के प्यासे हो जायेगे और मुझे उनकी गोलियो का निशाना बनना पड़ेगा। तुमने मुझे यह जीवन दिया है, इसे तुम्हारे चरणों पर अर्पित कर सकता हूँ। लेकिन भारतमाता ने तुम्हें और मुझे दोनों ही को जीवन दिया है और उसका हक सबसे बड़ा है। अगर कोई ऐसा मौका हाथ आ जाय कि मुझे भारतमाता की सेवा के लिए तुम्हे क़त्ल करना पड़े तो मैं इस अप्रिय कर्तव्य से भी मुँह न मोड़ सकूँगा। ऑखों से ऑसू जारी होगे, लेकिन तलवार तुम्हारी गर्दन पर होगी। हमारे धर्म मे राष्ट्र की तुलना में कोई दूसरी चीज नहीं ठहर सकती। इसलिए सभा को छोडने का तो सवाल ही नहीं है। हाॅ, तुम्हे डर लगता हो तो मेरे साथ न जाओ। मैं कोई बहाना कर दूँगा और किसी दूसरे कामरेड को साथ ले लूँगा। अगर तुम्हारे दिल मे कमज़ोरी हो, तो मुझे फौरन बतला दो।

माॅ ने कलेजा मजबूत करके कहा--मैंने तुम्हारे खयाल से कहा था भइया, वर्ना मुझे क्या डर।

अँधेरी रात के पर्दे मे इस काम को पूरा करने का फैसला किया गया था। कोप का पात्र रात को क्लब से जिस वक्त लौटे वहीं उसकी जिन्दगी का चिराग़ बुझा दिया जाय। धर्मवीर ने दोपहर ही को मौक़े का मुआइना कर लिया और उस खास जगह को चुन लिया जहाँ से वह निशाना मारेगा। साहब के बँगले के पास करील और करौदे की एक छोटी-सी झाड़ी थी। वही उसकी छिपने की जगह होगी। झाड़ी के बायीं तरफ़ नीची जमीन थी। उसमे बेर और अमरूद के बाग थे। भाग निकलने का अच्छा मौका था।

साहब के क्लब जाने का वक़्त सात और आठ बजे के बीच था, लौटने का वक़्त ग्यारह या बारह बजे था। इन दोनों वक़्तो की बात पक्की तरह मालूम कर ली गयी थी। धर्मवीर ने तय किया कि नौ बजे चलकर उसी करौदेवाली झाड़ी मे छिपकर बैठ जायँ। वही एक मोड भी था। मोड़ पर मोटर की चाल कुछ धीमी पड़ जायगी। ठीक इसी वक्त उसे रिवाल्वर का निशाना बना लिया जाय।

ज्यो-ज्यों दिन गुजरता जाता था, बूढ़ी माॅ का दिल भय से सूखता जाता था। लेकिन धर्मवीर के दैनदिन आचरण में तनिक भी अन्तर न था। वह नियत समय पर उठा, नाश्ता किया, सन्ध्या की और अन्य दिनों की तरह कुछ देर पढता रहा। दो-चार मित्र आ गये। उनके साथ दो-तीन बाज़ियाँ शतरज की खेली। इत्मीनान से खाना खाया और अन्य दिनों से कुछ अधिक। फिर आराम