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गुप्त धन
 

से सो गया, कि जैसे उसे कोई चिन्ता नहीं है। माॅ का दिल उचाट था। खाने-पीने का तो जिक्र ही क्या, वह मन मारकर एक जगह बैठ भी न सकती थी। पडोस की औरते हमेशा की तरह आयी। वह किसी से कुछ न बोली। बदहवास-सी इधर-उधर दौड़ती फिरती थी कि जैसे चुहिया बिल्ली के डर से कोई सूराख ढूँढती हो। कोई पहाड़-सा उसके सिर पर गिरता था। उससे कही मुक्ति नही। कही भाग जाय, ऐसी कोई जगह नहीं। वे घिसे-पिटे दार्शनिक विचार जिनसे अब तक उसे सान्त्वना मिलती थी--भाग्य, पुनर्जन्म, भगवान् की मर्जी--वे सब इस भयानक विपत्ति के सामने व्यर्थ जान पड़ते थे। जिरहबख्तर और लोहे की टोपी तीर-तुपक से रक्षा कर सकते है लेकिन पहाड़ तो उसे उन सब चीजों के साथ कुचल डालेगा। उसके दिलो-दिमाग बेकार होते जाते थे। अगर कोई भाव शेष था, तो वह भय था। मगर शाम होते-होते उसके हृदय पर एक शान्ति-सी छा गयी। उसके अन्दर एक ताक़त पैदा हुई जिसे मजबूरी की ताकत कह सकते है। चिडिया उस वक्त तक फडफडाती रही, जब तक उड निकलने की उम्मीद थी। उसके बाद वह बहेलिये के पंजे और कसाई के छुरे के लिए तैयार हो गयी। भय की चरम सीमा साहस है।

उसने धर्मबीर को पुकारा–-बेटा, कुछ आकर खा लो।

धर्मवीर अन्दर आया। आज दिन भर मॉ-बेटे में एक बात भी न हुई थी। इस वक़्त माॅ ने धर्मवीर को देखा तो उसका चेहरा उतरा हुआ था। वह सयम जिससे आज उसने दिन भर अपने भीतर की बेचैनी को छिपा रखा था, जो अब तक उड़े-उड़े-से दिमाग की शकल मे दिखायी दे रही थी, खतरे के पास आ जाने पर पिघल गया था--जैसे कोई बच्चा भालू को दूर से देखकर तो खुशी से तालियाँ बजाये लेकिन उसके पास आने पर चीख उठे।

दोनों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा। दोनों रोने लगे।

माँ का दिल खुशी से खिल उठा। उसने आँचल से धर्मवीर के आँसू पोछते हुए कहा--चलो बेटा, यहाँ से कहीं भाग चलें।

धर्मवीर चिन्ता-मग्न खड़ा था। माँ ने फिर कहा--किसी से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। यहाॅ से बाहर निकल जायें जिसमें किसी को खबर भी न हो। राष्ट्र की सेवा करने के और भी बहुत-से रास्ते है।

धर्मवीर जैसे नीद से जागा, बोला--यह नहीं हो सकता अम्माँ। कर्तव्य तो कर्तव्य है, उसे पूरा करना पड़ेगा। चाहे रोकर पूरा करो, चाहे हँसकर।