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क़ातिल
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हाँ, इस खयाल से डर लगता है कि नतीजा न जाने क्या हो । मुमकिन है निशाना चूक जाये और गिरफ्तार हो जाऊॅ या उसकी गोली का निशाना बनूँ। लेकिन खैर जो हो, सो हो। मर भी जायेगे तो नाम तो छोड जायेगे।

क्षण भर बाद उसने फिर कहा--इस समय तो कुछ खाने को जी नहीं चाहता, माँ। अब तैयारी करनी चाहिए। तुम्हारा जी न चाहता हो तो न चलो, मैं अकेला चला जाऊँगा।

मॉ ने शिकायत के स्वर मे कहा--मुझे अपनी जान इतनी प्यारी नहीं है बेटा, मेरी जान तो तुम हो। तुम्हे देखकर जीती थी। तुम्हें छोडकर मेरी ज़िन्दगी और मौत दोनों बराबर है, बल्कि मौत ज़िन्दगी से अच्छी है।

धर्मवीर ने कुछ जवाब न दिया। दोनों अपनी-अपनी तैयारियों मे लग गये। माँ की तैयारी ही क्या थी। एक बार ईश्वर का ध्यान किया, रिवाल्वर लिया और चलने को तैयार हो गयी।

धर्मवीर को अपनी डायरी लिखनी थी। वह डायरी लिखने बैठा तो भावनाओं का एक सागर-सा उमड पडा। यह प्रवाह, विचारों की यह स्वतः स्फूर्ति उसके लिए नयी चीज़ थी। जैसे दिल में कहीं सोता खुल गया हो। इन्सान लाफानी है, अमर है, यही उस विचार-प्रवाह का विषय था। आरम्भ एक दर्दनाक अलविदा से हुआ--

'रुखसत! ऐ दुनिया की दिलचस्पियो, रुखसत! ऐ जिन्दगी को बहारो, रुखसत! ऐ मीठे जख्मो रुखसत! देशभाइयो, अपने इस आहत और अभागे सेवक के लिए भगवान से प्रार्थना करना! जिन्दगी बहुत प्यारी चीज़ है, इसका तजुर्बा हुआ। आह! वही दुख-दर्द के नश्तर, वही हसरते और मायूसियाँ जिन्होंने जिन्दगी को कडुवा बना रखा था, इस समय जीवन की सबसे बड़ी पूँजी है। यह प्रभात की सुनहरी किरनो की वर्षा, यह शाम को रगीन हवाएँ, यह गली-कूचे, यह दरो-दीवार फिर देखने को न मिलेगे। ज़िन्दगी बन्दिशों का नाम है। बन्दिशे एक-एक करके टूट रही है। ज़िन्दगी का शीराजा बिखरा जा रहा है। ऐ दिल की आजादी! आओ तुम्हें नाउम्मीदी की कन में दफ़न कर दूँ। भगवान से यही प्रार्थना है कि मेरे देशवासी फले-फूले, मेरा देश लहलहाये। कोई बात नहीं, हम क्या और हमारी हस्ती ही क्या, मगर गुलशन बुलबुलों से खाली न रहेगा। मेरी अपने भाइयों से इतनी ही विनती है कि जिस समय आप आजादी के गीत गायें तो इस ग़रीब की भलाई के लिए दुआ करके उसे याद कर लें।