हिन्दी-भाषा
दूसरी भाषाओंके शब्द भी इसी सांचेमें ढालकर उक्त भाषामें मिला लिये
गये हैं। उजबकको उजबक्क, कमानको कव्वान, सुलतानको सुरत्तान,
कवचको कवञ्च बना डाला है। इसी प्रकार जहाँ जिस शब्दको ऐसा
करनेकी आवश्यकता पड़ी है, वहाँ उसीको कर डाला है। ऊपर जो
कविता चंदकी उद्धृत हुई है, उसमें इसके नमूने मौजूद हैं। कहीं-कहीं
उक्त दोनों नमूनांकी भापाको गडु-मड करके कविता की है। तीसरा
नमूना सरल भाषाका है। वह ब्रजभाषासे बहुत मिलती-जुलती है।
वही स्वच्छ और सरल होकर शुद्ध ब्रजभापा बनी होगी । नमूना देखिये-
एकादस से पंचदह विक्रम साक अनन्द ।
तिहिं रिपु जयपुर हरनको भय पृथिराज नरिन्द ।।
बहुत जगह चन्दने तीनों भाषाओंको मिलाकर तिगड्डा बनाया है।
कहीं-कहीं एकके शब्द दृसरीमें लगा दिये हैं। राजस्थानके कवि अबतक
इन तीनों नमूनोंको भाषामें कविता करते हैं। शुद्ध ब्रजभाषाका प्रभाव
उनपर बहुतही अल्प हुआ।
कवि चन्दके पीछे सौ सालतक बड़ो भारी तबाही और अशान्ति-
का समय बीता। इससे फिर वैसे कवि और लेखक उत्पन्न न हुए। न
पृथिवीराजके पीछे कोई स्वाधीन हिन्दू राजा रहा, न कवियोंका सम्मान
करनेवाला। इससे पता नहीं लगता कि आगे भाषाको क्या गति हुई ?
अल्लाउद्दीन खिलजीके राजत्वकालके आरम्भमें दिल्लीमें अमीर खुसरू
फारसी भाषाका एक प्रसिद्ध कवि हुआ है। वह सन् १३२५ ई० में
मरा। उसने हिन्दीमें कुछ नई कारीगरी करके दिखाई। फारसीमें
वह बहुत तेज था। नई बात उत्पन्न करने और नये-नये बेलबूटे बनाने-
को उसे जन्महीसे शक्ति मिली थी। इससे हिन्दीमें भी उसने बहुत कुछ
नयापन कर दिखाया। फारसी और हिन्दीको मिलाकर उसने कई एक
ऐसी कविताएं लिखीं, जिनकी आजतक चर्चा होती है। उनकी नीचे
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