पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/१४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गुप्त-निबन्धावली राष्ट्र-भाषा और लिपि होता है । जतेके तला न हो तो पहना कैसे जाय ? इसी प्रकार संबोसा जब तक कढ़ाईमें तला न जाय कैसे खाया जावे ? पानको यदि फेरते न रहें तो सड़ जाता है। घोड़ा न फरनेसे अड़ जाता है। इस ढङ्गमें खालिस हिन्दीके दो-सुखने नहीं, से-सुखने तक हैं। इनको भी एक प्रकारकी पहेलो कहना चाहिये । पुरानी हिन्दीका एक से-सुखना है अथवा इसे मारवाड़ी भाषाका समझिये-- गाड़ी अटकी गोरवे काँटो लाग्यो पाय । कामन रोवे महलमें कह चला कहँ दाय ? गाड़ी गांवसे बाहर अटक गई, पांवमें काटा लगा, कामिनी महलमें रोती है क्यों चेले क्या कारण ? चेलेने उत्तर दिया-गुरुजी जोड़ी नहीं। गाड़ीके पहियोंको जोड़ी कहते हैं पावके जूतेको जोड़ी कहते हैं । स्त्री-पुरुष मिल कर जोड़ी होते हैं। खुसरूके फारसी हिन्दीके मिले हुए दो-सुखने- सौदागर रा चि मोबायद ? बचेको क्या चाहिये ? दुकान । शिकार व चि मोबायद कई ? मगजको कूबतको क्या चाहिये ? बादाम। तिशना रा चि मीबायद ? मिलापको क्या चाहिये ? चाह । सौदागर क्या चाहता है ? दुकान, और बूचा भी चाहता है दूकान । शिकार बादाम अर्थन जालसे होता है। मगजको बादामसे शक्ति मिलती है। प्यासेको चाह अर्थात् कूप दरकार है। मिलापके लिये भी चाह दरकार है। आज कल इन सब बातोंकी चाहे कोई बहुत इज्जत न करे, पर उस समय यह विद्याके विनोदमें दाखिल थीं। इनसे फारसी हिन्दीका बड़ा भारी मेल हुआ इसमें कुछ संदेह नहीं, यहां तक कि बनते-बनते एक नई भाषा बनगई। [ १२८ ]