गुप्त-निबन्धावली
र,प्ट्र-भाषा और लिपि
जहाँ क्रोध तहां काल है, जहां क्षमा तहाँ आप ।
'साहब' सों सब होत है, 'बन्दे' सों कछु नाहिं ।
राईसों परवत करे, परवत राई माहिं ।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न दीखे कोय ।
जो 'दिल' खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय ।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पलमें परलै होयगी, बहुरि करोगे कब ।
पाव पल्लकी सुधि नहीं, करे कालको ‘माज ।
काल अचानक मारि है, ज्यों तीतरको बाज ।
माली आवत देखिके, कलियाँ करी पुकार ।
फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बार ।
कांची काया मन अथिर, थिर थिर काम करन्त !
ज्यों ज्यों नर निधरक फिरे, त्यों न्यों कालि हसंत ।
बहुतसे भजन भी उनके नामके बहुत माफ मिलते हैं, पर वह उनके
हैं कि नहीं इसमें सन्देह है। क्योंकि जो पुस्तकं उनके नामसे छपी हैं,
उनमें वह नहीं आये हैं। इकतार पर गानेवालों या संग्रहकी पोथियोंमें
मिलते हैं। जो पद उनकी पोथियों में भी हैं, उनमें कोई कोई साफ हैं।
कुछका नमूना देते हैं -
तन धर सुखिया कोई न देखा, सब जग दुग्विया देखारे ।
ऊपर चढ़ चढ़ देखा साधो, घर घर एकहि लेखारे ।
जोगी दुखिया जंगम दुखिया, तापसको दुख दूनारे ।
कहे कबीर सुनो भाई साधो, कोई महल नहीं सूनारे ।
___पंडित बादं बदै सो झूठा।
रामके कहे जगत गति पावे, खांड़ कहे मुख मीठा।
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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/१४९
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