पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/१७५

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गुप्त-निबन्धावली राष्ट्रभाषा और लिपि यहाँ तक कि लाहोरके अखबारे-आमके सिवा एक भी उर्दू अखबार ऐसा नहीं, जिसमें कभी कोई हिन्दीका लेख उद्धृत हुआ हो अथवा उसका सम्पादक हिन्दी अखबारवालोंकी बात ठीक-ठीक समझता हो। यदि उर्दू, देवनागरी अक्षरोंमें लिखी जाती तो आज उसमें और हिन्दीमें कुछ भेद न होता। अब भी यदि उर्दु जाननेवाले देवनागरी अक्षर जानने- की चेष्टा कर तो उन्हें एक नई दुनियाँका पता लगे, जिससे वह आजतक बेखबर हैं। इन सब बातोंपर विचार करनेसे हम 'प्रवासी'के खयालको और भी पसन्द करते हैं। बेशक चार भाषाओंका पत्र देवनागरी अक्षरों में निकलनेसे वहुत-कुछ उपकार हो सकता है । यह आनन्दकी बात है कि प्रवासी-सम्पादकका एक जरूरी बातको ओर इतना ध्यान हुआ है। सचमुच भारतवपके लिये एक देश-व्यापी भाषाकी बहुत भारी जरूरत है। भारतवासियोंके पास इस समय ऐमो कोई भापा नहीं है, जिसमें भारतके सब प्रान्तोंके लोग बात कर सके। इसीसे इन्डियन नेशनल कांग्रेसमें अंग्रेजीसे काम लिया जाता है। एक प्रवीण युरोपियनने खूब कहा था कि यदि कांग्रेसवालोंसे अंग्रजी भापा छीन ली जाय तो कांग्रेस एक दिनमें बंद हो जाय। क्योंकि मन्द्राजियोंको पंजाबियोंसे और पंजाबियोंको बंगालियोंसे और इसी प्रकार एक दूसरे प्रान्तवालोंको भिन्न प्रान्तवालोंसे आपसमें बात करनेके लिये कोई भापा नहीं है। बतिम बाबूके समयके बङ्गदर्शनने, भारते एकता' नामके लेखमें हिन्दीको ही सारे भारतवर्षकी भाषा होनेके योग्य माना था। प्रवासीको वह नम्बर नहीं मिला, इससे हम उसका पता देते हैं। वह नम्बर बङ्ग- दर्शनके पांचवे खण्ड १२८४ सालका था। ४६ वें पृष्ठसे लेकर बारह पेज- में वह लेख समाप हुआ है। लेखके उपसंहार में लिखा है :- "उपसंहार काले सुशिक्षित बङ्गवासिगणके एकटी कथा बलिते इच्छा [ १५८ ]