पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/१९०

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हिन्दुस्तानमें एक रस्मुलखत गो हमारा मतलब हिन्द भरमें एक रस्मुलखत और एक जुबान बनानेका है। मगर पहिले हिन्दुओंसे शुरू करना होगा । पहिले नागरी और तामिल या द्राविड़ रस्मुलखतमें इत्तफ़ाक़३६ पैदा कराना होगा । इन दोनोंमें सिर्फ हरुफ ही का इस तलाफ३७ नहीं है, बल्कि तामिलमें कुछ आवाजें ऐसी हैं, जो किसी आर्य जुबानमें नहीं हैं। हम सीढ़ी सीढ़ी चढ़ना चाहते हैं, और शुरूमें जैसा कि प्रेसीडेन्ट साहबने इरशाद३८ फरमाया है, हम संस्कृतसे निकली हुई जुबानोंको हाथमें लेते हैं। इन जुबानोंके नाम हिन्दी, बंगला, गुजराती, मरहठी, और पंजाबी हैं। यह सब जुबाने संस्कृतसे निकली हैं और जिन हरुफ़में यह लिखी जाती हैं, वह सब भी हिन्दुस्तानके पुराने हरुफ़से बदलते बदलते मौजूदा शक्लोंमें आये हैं। अब इन जुबानोंके कवायद और बोलने और लिखनेके ढङ्गमें फ़र्क आ गया है। मगर वैसे देखिये तो इनके हरुफ़ करीब करीब यकसां और हम-शक्ल हैं। नागरी-प्रचारणी-सभा कुल आर्यजुबानोंके लिये एक रस्मुलखत पैदा करना चाहती है। जिससे उस रस्मुलखतमें लिखी हुई किताबोंको आर्य जुबानोंके बहुत चाहनेवाले पढ़ सक। इस खयालकी अहमियत हम सब तसलीम करते हैं। मगर मुश्किल पड़ती है, उस वक्त जब कहा जाता है कि फलां रस्मुलखत सबसे उम्दा है। मसलन बंगाली कह सकते हैं कि उनके हरुफ़ गुजरातियों और मरहठोंके हरुफ़से क़दीम हैं। इससे सब जुबानोंके लिये बंगला रस्मुलखतही बेहतर है। और कुछ लोग देवनागरी हरुफ़को एक रस्मुलखत बनानेके तरफ़दार हैं और उन्हींको सबसे क़दीम मानते हैं। मेरे खयालमें तारीखी सबूतसे यह सवाल हल नहीं हो सकता । क्योंकि अगर अशोकके वक्तसे आज तकके पत्थरोंके कुतबे देखें जायँ तो ३६-एकता । ३७-भेद । ३८-आज्ञा । [ १७३ ]