पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/२१५

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( भारतमित्र २५ फरवरी सन् १९०५) आशाका अन्त (५) भाई लार्ड ! अबके आपके भाषणने नशा किरकिरा कर दिया । संसारके सब दुःखों और समस्त चिन्ताओंको जो शिवशम्भु शर्मा दो चुल्लू बूटी पीकर भुला देता था, आज उसका उस प्यारी विजयापर भी मन नहीं है। आशासे बंधा हुआ यह संसार चलता है। रोगीको रोगसे, कैदीको कैदसे, मृणीको ऋणसे, कंगालको दरिद्रतासे,--इसी प्रकार हरेक क्लेशित पुरुपको एक दिन अपने क्लेशसे मुक्त होनेकी आशा होती है। चाहे उसे इस जीवनमें क्लेशसे मुक्ति न मिले, पर आशाके महारे इतना होता है कि वह धीरे धीरे अपने क्लेशोंको झलता हुआ एक दिन इस क्लेशमय जीवनसे तो मुक्त हो जाता है। पर हाय ! जब उसकी यह आशा भी भंग हो जाय, उस समय उसके कटका क्या ठिकाना । -- "किस्मत पे उस मुसाफिरे खस्ताके रोइये। जो थक गया हो बैठके मंजिलके सामने ।" । बड़े लाट होकर आपके भारतमें पदार्पण करनेके समय इस देशके लोग श्रीमानसे जो जो आशाएँ करते और सुखस्वप्न देखते थे, वह सब उड़नछू हो गये। इस कलकत्ता महानगरीके समाचारपत्र कुछ दिन चौंक चौंक पड़ते थे कि आज बड़े लाट अमुक मोडपर वेश बदले एक गरीब काले आदमीसे बात कर रहे थे, परसों अमुक आफिसमें जाकर कामकी चक्कीमें पिसते हुए क्लर्काकी दशा देख रहे थे और उनसे कितनीही बात पूछते जाते थे। इससे हिन्दू समझने लगे कि फिरसे विक्रमादित्यका आविर्भाव हुआ या अकबरका अमल होगया। मुसलमान खयाल करने लगे, खलीफा हारू रशीदका जमाना आगया। पारसियोंने [ १९८ ]