पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/२६६

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शाइस्ताखाका खत मदद करेंगे। भाई ! हमारी कौमकी सलतनत गई, हुकूमत गई, शानो- शौकत गई, पर जिहालत और गुलामीकी आदत न गई । वह मर्द नहीं बनना चाहती, बल्कि रांड रहकर सदा एक खाविन्द तलाश करती रहती है। देखें तुम्हारे बाद क्या करती है ! ___ तूल फुजूल है। तुम चले, अब कहनेसेही क्या है ? पर जो तुम्हारे जानशीन होते हैं, वह सुन रख कि जमानेके बहते दरयाको लाठी मारके कोई नहीं रोक सकता। दूसरेको तङ्ग करके कोई खुश रह नहीं सकता। अपने मुल्कको जाओ और खुदा तौफीक दे तो हिन्दुस्तानके लोगोंको कभी-कभी दुआये बरसे याद करना। वस्सलाम- शाइस्ताखा-अज जन्नत । ( भारतमित्र, ९ मार्च सन् १९०७ ई० ) सर सय्यद अहमदका खत (३) अलीगढ़ कालिजके लड़कोंके नाम। मेरे प्यारो, मेरी आंखोंके तारो, मेरी कोमके नौनिहालो ! ___जिन्दगीमें मैंने इज्जत, नामवरी बहुत कुछ हासिलकी, मगर यह कहूंगा और मेरा यह कहना बिलकुल सच है कि तुम्हारी बेहतरीकी तदबीरहीमें मैंने अपनी उमर पूरी कर दी। तुम लोगोंकी तरक्की और बेहबूदीके खयालहीको में अपनी जिन्दगीका हासिल समझता रहा । होश सम्हालनेके दिनसे अखीर दमतक इस कौमेमरहूमका मरसियाही मेरी जुबानपर जारी था। लाख-लाख शुक्रकी जगह है कि मेरी मेहनत बेकार न गई। तुम्हारे लिये मैं जो कुछ चाहता था, उसमें से बहुत कुछ [ २४९ ]