पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/२७५

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गुप्त-निबन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास खूब मिलकर चलना। उसे जब जैसा सम्पादक मिलता था, तब उसकी वैसी ही पालिसी हो जाती थी। सच तो यह है कि उस समय देशी अखबारोंकी कुछ पालिसी स्थिर ही नहीं हुई थी। कोहेनूरमें संवाद- दाताओंकी भेजी हुई लम्बी लम्बी खबर, दूसरोंके भेजे हुए बड़े बड़े लेख, अंग्रेजी अग्ववारोंके तारोंका तरजमा और कुछ एडिटोरियल नोट्स होते थे। एक दो आर्टिकल भी सम्पादक महाशयके लिखे हुए होते थे । कोहेनूर साताहिकसे अर्द्ध साप्ताहिक और फिर मप्ताहमें तीन बार हुआ। उसका साइज बहुत अच्छा था। लिग्वाई छपाईका ढङ्ग भी अच्छा था । सन १८८८ और ८६ ई० में भारतमित्रके वर्तमान सम्पादकको भी उसके सम्पादकोंमें शामिल होनेका अवसर मिला था। उस समय तीन महीनेके लिये उक्त पत्र दैनिक भी हुआ। पर नव कोहेनूरका ढलता जमाना था। उसका चढ़ा हुआ मितारा नीचा होचुका था तथा उसके सौभाग्यकी जड़में दीमक लग चुकी थी। उसके मालिक मुंशी हरसुखराय बूढ़े भी होगये थे और रिक्तहम्त भी होगये थे। जो लोग उनकी सहायता करते थे, वह संसारसे एक एक कर उठ चुके थे। ऐसी दशामें पत्रका दैनिक रखना उचित न समझा गया। क्योंकि रुपयेका काम रुपयेहीसे चलता है। उदार मालिककी इच्छा थी कि पत्र दैनिक रहे। पर समझदार सम्पादकोंने प्रेसकी दशाका विचार करके वह मौकूफ करादी। इसके थोड़ेही दिन पीछे मालिकका भी देहान्त होगया। उनके दत्तक पुत्र मुंशी जगतनारायणने कुछ दिन पत्र चलाया, किन्तु थोड़ेही दिन पीछे उनका भी देहान्त होगया। उनकी विधवा पत्नीके नामसे कोहेनूर बहुत बड़ी बेरौनकीके साथ साताहिक चलने लगा। अब भी चलता है, पर हाय, इस नामी पत्रका कोई नाम तक नहीं लेता! विलायत आदि सभ्य देशोंमें जो वस्तु जितनी पुरानी होती जाती है, उतना ही उसका आदर बढ़ता जाता है। पंजाबसे जो “कोहेनूर"