पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/२८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गुप्त-निवन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास कुछ अर्थ नहीं निकलता उसके होनेसे क्या फायदा है ? जिन लेखोंका अवध अखबार में तरजमा होता है उनकी भी यही दशा होती है । जबतक असल अगरेजी लेख सामने न हो तबतक अवध अखबारमें उस लेखके तरजमेका मतलब समझना कितनेही स्थानोंमें कठिन हो जाता है। इस ओर भी अवध अखबारके मालिकका ध्यान होना चाहिये। अवध अखवारका ग्राफ बहुत अच्छा है। उसमें चाहे कोई सम्पादक कहनेवाला न हो, पर टाफ ओछा नहीं है। अच्छे अच्छे वेतनके तर- जमा करनेवाले उसमें मौजूद हैं । मनेजर है, क्लर्क हैं, उसके वहां कातिबोंकी भी कमी नहीं है। और भी मब सामान है यहांतक कि उसके पास जो कुछ सामान है, वैसा अबतक किसी उद्दे अग्बबारके पास नहीं है। ऐसा अग्वबार यदि किमी अच्छे ढंगपर चलाया जाता तो वह बहुत कुछ नामवरी पा सकता था। पर अवध अग्वबारमें यह चेष्टा नहीं की गई, वह आजतक पुरानी लकीरका फकीर है। समय कितनाही पलट गया। वह जहां था, वहीं है। पालिसीके हिसाबसे अवध अखबार बेसुंडका हाथी है । उसके किसी नम्बरको उठाइये और आरम्भसे लेकर अन्ततक पढ़ जाइये, कुछ पता न लगेगा कि उसका क्या उसूल है और वह क्यों जारी है। एडीटोरियल कालम उसमें है ही नहीं। कभी कभी ऐसा मौका हुआ है कि उसमें अबध अखबारको भी एडीटोरियल लिखना पड़ा है, पर वह ऐसाही कि जिसका होना न होना बराबर है। जब उक्त पत्र कांग्रसका विरोध करता था तो उसमें कुछ कुछ एडीटोरियल लेख होते थे। गोरक्षिणी सभाओंपर जब एक बार पश्चिमोत्तर प्रदेशकी गवर्नमेण्टको कोपट्टष्टि हुई थी, उस समय अवध अखबार में कुछ एडीटोरियल लेख देखे गये थे। और भी सरकारो खैरख्वाहीके मौकोंपर एडीटोरियल लेख हुए हैं। स्वर्गीय