पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/२८३

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गुप्त-निबन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास और छोटे रईसोंसे ३०) और पचास रुपया मासिककी आयवालोंसे २०) है। उसका शनिवारका नम्बर साप्ताहिक पत्रकी भांति भी निकलता है । उसका वार्पिक मूल्य १) है। इतने भारी मूल्यके पत्रको सर्वसाधारण लोग नहीं खरीद सकते । इससे भी वह सर्वसाधारणके हाथोंतक बहुत कम पहुंचा और आगे भी पहुंचनेका कोई उपाय नहीं है । __इतना मूल्य रखनेपर भी उसे कितनीही बार घाटेके लिये झीखना पड़ा है। हिन्दीका “अवध समाचार" भी उसी कारखानेसे निकला था। जिस प्रकार वह ग्राहकोंके अभावकी शिकायत करके परमलोकको चला गया. उसी प्रकार अवध अखबारको भी कितनीही बार नुकसानकी शिकायत करनी पड़ी है। हमें स्मरण है कि सन १८८७ ई० में उसने ऐसी शिकायत की थी। पर यह शिकायत बहुत कामकी न थी, क्योंकि इमी पत्र द्वारा नवलकिशोर प्रसकी हजारों रुपया मासिककी पुस्तक बिकती हैं। इससे यदि एक ओर घाटा होता है तो दूसरी ओर नफा भी होता है। हम ऊपर इशारा कर चुके हैं कि अवध अखबारके पास जमा सामान और श्राफ है, उसको लेकर यदि यह पत्र देशकी भलाईके लिये चेष्टा करता तो बहुत कुछ कर सकता और यही सब उर्दू पत्रोंमें सब बातोंमें प्रधान गिना जाता । पर उन सब गुणोंसे वह बहुत दूर है, इससे खाली डील-डौल और टाफमें ही प्रधान है, बाकी बातोंमें कुछ नहीं। आगे भी इस पालिसीसे वह कोई नेकनामी नहीं प्राप्त कर सकेगा और यदि यही पालिसी और भी २० माल तक जारी रहे तो एक दिन उसे आपसे आप बन्द होजाना पड़ेगा या अपने घरसे कौड़ी-कौड़ी खर्च देना पड़गा। वर्तमान अवध अग्यबारसे उर्दू पढ़े कुछ लाभ नहीं उठा सकते और जो अगरेजी पढ़े हैं, वह २०) साल खर्च करके अंगरेजीका कोई अच्छा दैनिक पत्र पढ़ सकते हैं। [ २ ]