हिन्दी-अखबार
हरीचन्द पिय रङ्ग बावरी
ग्वालिनि प्रेमडोर गहि झूलत ।
कभी कभी कवित्त और सवैये भी छापे जाते थेः-
जबसों हम नेह किये उनसों
तबसों तुम बात सुनावती हो ।
हम औरनके बसमें हैं परे
हरिचन्दहि कह समझावती हो ।
कोर आपु न भूलि है बूझहु तो
तुम क्यों इतनों बतरावती हौ ।
इन नैननको सखी दोष सबै
हमैं झूठहि दोष लगावती हो ।
पिय रूसिबे लायक होय जो रूसनो
वाहीसौ वाहिये मान किए ।
हरिचन्द तो दास सदा बिन मोल
__को बोले सदा रुख तेरो लिए !
रहै तेरे सुखीसों सुखी नितही
_मुख तेरोही प्यारी विलोकि जिए ।
इतनेहूं पै जाने न क्यों तू रहै
सदा पीयसों भौंह तनेनी किए।
यह हरिश्चन्द्रजीकी कई प्रकारको कविताके नमूने हैं। वह
समय ऐसा था कि कविताहीसे लोगोंको अधिक प्रेम था। इसीसे
कविवचनसुधाको अखबार होकर भी 'कविवचनसुधा' होना पड़ा
था और कविता इसमें बराबर छपती थी। जब हश्चिन्द्रजीने
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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/३३८
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