पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४१४

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हिन्दी-अखबार इस निवेदनसे समझमें आता है कि पण्डित छोटूलालजी मिश्र और पण्डित दुर्गाप्रसादजी मिश्र इस पत्रके जन्मदाता हैं। इसकी पहली संख्या सरस्वती प्रस कलकत्तमें छपी थी जो ४८ मछवाबाजार रोडमें था और जिसके प्रिंण्टर बाबू क्षेत्रमोहन मुकीं थे। ऊपरके निवेदनकी भापासे उस समयकी हिन्दी भाषाका भी बहुत कुछ पता लगता है। हिन्दी लिखनेकी उस समय क्या रीति थी वह भी इससे स्पष्ट होती है। इन सब बातोंको अधिक स्पष्टतासे दिखानेके लिये हम भारतमित्रके पहले नम्बरका सबसे पहला लेख पूरा नकल कर देते हैं। ___ “समाचारपत्रोंसे जो उपकार होता है, वो बम्बई और बंगालेको देख- नेसे साफ जान पड़ेगा ; इस लिये इस विपयमें बहोत लिखनेका कुछ प्रयोजन नहीं है। क्योंकि जबतक जिस देशमें, जिस भाषामें और जिस समाजमें समाचारपत्रका चलन नहीं है, तब तक उसकी उन्नतिकी आशा भी दुराशा मात्र है, कारण ये वो चीज है कि जिस्से घरमे कोठडीके भीतर बैठके सारी दुनियांको हथेली पर देख लो अर्थात् अखण्डभूमण्डलमे जहां जो विशेष बात होती है वो इसीके द्वारा प्रकाश होती है और अपना दुःख सुख प्रधान राज्याधिकारियोंको सुनाने और प्रार्थना करनेका येही मुख्य उपाय है यदि समाचारपत्र नहीं होय तो राजाको अपने प्रजाका कुछ हाल नहीं मालुम हो सके ऐसी दशामें राज्य- शासन भी अच्छी तरहसे नहीं हो सक्ता इसी लिये सुसभ्य प्रजाहितषी राजालोग समाचारपत्रोंको स्वाधीनता देके उत्साहित करते हैं इससे राजा प्रजा दोनोंको सुख प्राप्त होता है, कारण राजाको बिना परिश्रम वेतनके संसारके दूत मिल जाते हैं जो कि सर्वदा राजाको नाना तरहकी खबरोंसे सावधान किया करें हैं और प्रजाको राजातक अपना कष्ट और अभावके निवेदन करनेका मुख्य उपाय और सुगम रस्ता यही है, क्योंकि समाचार पत्र प्रजाका प्रतिनिधि स्वरूप होता है [ ३९७ ]