पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४४३

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गुप्त-निबन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास और यह याद रहे कि जो कुछ हो चुका है, उससे कितने ही गुना बढ़कर और भी होनेकी आशा है। अपने प्रिय पाठकोंसे हम थोड़ेसे उत्साहको सहायता मांगते हैं। और कुछ नहीं चाहते। केवल इतनी सहायता कि वह अपने मित्रों और अपने परिचित लोगोंको भारतमित्रका ग्राहक बनावें। ग्राहकोंका बढ़ाना ही समाचार पत्रका प्राण है। इससे भारत- मित्रके प्रेमी जितनेही ग्राहक बढ़ावंगे, उतनाही इसके जीवनको दृढ़ करेंगे और उतनाही इसे शक्तिशाली बनावेंगे । यदि पाठक प्रतिज्ञा करके एक एक ग्राहक भी बढ़ा तो वातको वातमें इसके दुने ग्राहक हो सकते हैं। भरोसा करते हैं कि हमारी यह प्रार्थना खाली न जायगी । -भारतमित्र सन् १९०५ ई० [ ४२६ ]