व्याकरण-विचार
है और पोथियां रच डाली हैं। आलोचनामें केवल उनकी तारीफों-
हीके ढोल नहीं बजाये गये हैं, वरञ्च उनकी भूलं दिखाई हैं, उनके साथ
दिल्लगीकी है, उनको टिटकारियां दी हैं । लाला सीतारामको सभ्यताका
पाबन्द बताकर उनकी बहुत हंसी उड़ाई है। मरुस्थलके एक महाकविने
जिस प्रकार एक पोथा बनाकर 'भारत' आदिकी भूल दिखाई है, द्विवेदी-
जीने उसी प्रकार कालिदास तककी खबर ली है। अब गत नवंबर मासकी
'सरस्वती'में “भाषा और व्याकरण" का लेख लिखकर उन्होंने हिन्दीके
नये पुराने लेखकोंसे जो बर्ताव किया है, वह किसीसे छिपा हुआ नहीं
है। उस लेखसे क्या स्पष्ट होता है ? क्या यह कि हिन्दी भाषामें
कोई व्याकरण नहीं है और उसमें एक नया व्याकरण बनाना चाहिये ?
क्या हिन्दी या हिन्दीके किसी लेखकके साथ उसमें कुछ सहानुभूति या
श्रद्धा प्रगट होती है ? इन बातोंमेंसे एक भी नहीं है। केवल यही स्पष्ट
होता है कि हिन्दीमें गदर मच रहा है। जितने पुराने लेखक थे, सब
अशुद्ध लिखते थे। नये भी अशुद्ध और बेठिकाने लिखते हैं। जितने
व्याकरण हिन्दीमें हैं वह किसी कामके नहीं, शुद्ध हिन्दी लिखना कोई
जानता नहीं। जो कुछ जानते हैं सो केवल उस लेखके लेखक !
यदि हिन्दीमें अच्छे व्याकरण नहीं हैं और द्विवेदीजीको यह अभाव
मेटनेकी भगवानने शक्ति दी है तो एक अच्छा व्याकरण लिखनेसे उनको
किसने रोका ? और अब कौन रोकता है ? पर व्याकरण लिखना तो
शायद चाहते नहीं। चाहते हैं, अपनी सर्वज्ञताका डङ्का बजाना ।
आत्मारामको उनके लेखसे उनकी सर्वज्ञताका सबूत नहीं मिला, इसीसे
उसने उनके लेखकी आलोचना कर डाली। हमने आत्मारामके इस
कामको बुरा नहीं समझा और द्विवेदीजी तथा उनके प्रेमी कहलाने-
वालोंको भी ऐसा ही समझना चाहिये । क्योंकि हमारी समझमें द्विवेदी-
जीने अपना वह लेख केवल इसलिये नहीं छापा होगा कि वह एक बार
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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४४६
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