पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४५१

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना लेखनीके नीचे आनेहीके योग्य कहां था ! पर राजा लक्ष्मणसिंहको छोड़ दिया, इसपर आगरा भर हैरान है। हरेकके जीमें रह रह कर यही प्रश्न उठता है कि राजाको बेलियाकत समझकर द्विवेदीजीने माफ किया या वह कुछ शुद्ध हिन्दी लिखना जानता था ? खैर, इस प्रश्नका उत्तर आगरेवाले तलाश करते रहें, पाठक द्विवेदी- जीके लेखकी तरफ आय। द्विवेदीजीने पहले ही हमलेमें हरिश्चन्द्रको वह धरकर फफेड़ा है कि सब हिन्दीवाले ची बोल जावेंगे। आप जानते हैं कि हरिश्चन्द्र कौन ? वही जिसको इस समयके हिन्दी लेखक वर्तमान हिन्दीका जन्मदाता और पालनकर्ता मानते हैं। वही जिसकी रच- नाओंको पढ़कर “हम पञ्चनके ट्वालामां” बोलनेवाले हिन्दी बोलनेको चोंच खोलने लगे हैं। हिन्दीवालोंका तो हरिश्चन्द्रसे यह नाता है । द्विवेदीजीका एक नाता भी बहुत खोज करनेसे निकल आया है। आपने पण्डित श्रीधर पाठकका नाम सुना होगा। उन श्रीधरजीने हरिश्चन्द्रके गोलोकवासके पश्चात् एक हरिश्चन्द्राष्टक लिखकर अपनी लेखनीको गौर- वान्वित किया था। श्रीद्विवेदीजोने पण्डित श्रीधरजीकी प्रशंसामें एक सप्तक लिखकर भारतमित्रमें छपवाकर अपनेको धन्य समझा था। इसी हिसाबसे द्विवेदीजीकी डबल श्रद्धा हरिश्चन्द्र तक पहुंचती है। श्रीधरजी वाले अष्टकमें मिलकर द्विवेदीजीका सप्तक पञ्चदशक बनता हुआ हरिश्चन्द्रके चरणकमल तक पहुंच जाता है। ऐसे हरिश्चन्द्रकी जब द्विवेदीजीने सबसे पहले खबर ली है तो फिर किसी ऐसे वैसेकी बातहो क्या रही। प्राम्य पाठशालाके गुरुजीकी भांति द्विवेदीजीने ‘क ख ग' सेही अपना लेख आरम्भ किया है। बड़ी सरलतासे आप फरमाते हैं- "मनमें जो भाव उदित होते हैं, वे भाषाकी सहायतासे दूसरोंपर प्रकट किये जाते हैं। मनकी बातोंको प्रकट करनेका प्रधान उपाय भाषा है।" क्या कवाइदे हिन्दी समझानेकी चेष्टा आपने की है। हरिश्चन्द्रसे [ ४३४ ]