पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४५९

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गुप्त-निबन्धावली मालोचना-प्रत्यालोच चेष्टा नहीं दरकार होती।" कहिये, महाराजजीके इन वाक्योंका क्या अर्थ समझे ? हाय हाय ! “मोरी रंगमें डबोई कारी कामरिया !" अजी महाराज ! हिन्दीके सुधारको खड़े हो गये, पहले कुछ दिन लिखनेका ढङ्ग तो सीख लेते। कहिये तो भाषा, प्रयत्न और परिश्रमसे सिद्ध क्या होती है ? दालकी भांति गल जाती है या मसानमें जाकर भूत जगाती है ? हिन्दी लिखने चले हैं तो इस तरह लिखिये कि हिन्दीवाले आपकी बात समझ लें। फिर आप फरमाते हैं कि बोलनेकी भाषाके प्रकाशनमें किसी तरहकी चेष्टा नहीं ररकार होती। क्या मुंह खोलना नहीं पड़ता ? बत्तीसी दिखाये और ओष्ठ फरकाये बिना ही वह स्वयं मुंहसे बाहर निकल जाती है । कहने चले हैं आप यह बात-"लिखनेकी भाषा कुछ बनावटी होती है और बोलनेकी सीधी बेबनावटी। लिखनेकी भाषामें लेखकको कुछ चतुराई और सावधानीसे काम लेना पड़ता है, पर बोलने- की भाषामें कुछ नहीं करना पड़ता ।" इस सीधीसी बातको द्विवेदीजीने एक अनघड़ भाषाके चक्करमें डालकर बतंगड़ बना दिया है । द्विवेदीजी और कहते हैं-"लिखनेकी भाषा अधिक दिनोंतक एक रूपमें रहती है। बोलनेकी भाषामें बहुतशीघ्र शीघ्र फेरफार होते रहते हैं । इसलिये कथित भाषा चिरकाल तक एक रूपमें नहीं रहती।” इसमें पिछला वाक्य यों होना चाहिये,–“इसलिये वह चिरकाल तक एक रूपमें नहीं रहती।" अफसोस है कि भाषाके ऐसे ऐसे सीधे दोष भी महा- राजकी समझमें नहीं आते। खैर, महाराजजीको जानना चाहिये कि लिखनेकी भाषा भी वही अच्छी समझी जाती है जो बोलचालको भाषा हो, मनघड़न्त न हो। उसीको बामुहावरा भाषा कहते हैं। मुहावरेका अर्थ बोलचाल है। अहलेजुबान और जुबानदान लोगोंकी बोलचाल वामुहावरा बोलीकी गिनतीमें है। उक्त बामुहावरा भाषा ही बहुत काल पीछे तक समझमें आती है। सूरदासकी भाषा बोलचालकी भाषा [ ४४२ ]