पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४६१

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना इतना खोलकर कह दिया है कि स्वयं संसार ही नश्वर है । फिर आदमी और जानवरोंकी तो बात ही क्या है। जो पहाड़ या नदी नाले आज हैं, वह कल नहीं और परसों देखिये, तो चान्द तारों सहित दिनमें आकाश ही नदारद ! द्विवेदीजीने “भाषा और व्याकरण” का लेख क्या लिखा है, एकदम जीवोंके उद्धारको ठान ली है। आपके एक ही इस लेख में वेद, शास्त्र, पुराण, दर्शन सब हैं। गीता, वेदान्त, न्याय, सब इसीमें हैं। बात आपने एक साथ इतनी कह डाली हैं कि किसीका किसीसे मेल नहीं । जैसे कैलासमें बाघ और हरन एक ही साथ विचरते हैं, किसीको किसीसे कुछ कष्ट नहीं, उसी प्रकार द्विवेदीजीको बातें भी अलग अलग अपना अपना काम करती हैं। एक बातसे दूसरीको सरोकार नहीं । इसके भीतर छिपी हुई आपकी प्रश्नोत्तरो सबसे गजब की है। सुनिये- प्रश्न-"इस नश्वरतासे क्या किसीको कोई (कुछ ) तकलीफ होती है। उत्तर-"नहीं ! समयके अनुसार मनुष्यको इच्छा और अपेक्षामें भी अन्तर होता जाता है। इससे उसे संसारिक परिवर्तन नहीं खलते । भाषाका भी यही हाल है। * * * * देशकाल और मनुष्यकी स्थितिके अनुसार उसमें रदबदल (रद्दोबदल) हुआ ही करता है और बराबर हुआ करेगा। उसे कोई रोक नहीं सकता।" उत्तरकी दुम-परिवर्तन होना ईश्वरीय नियम है ! उसकी प्रतिबन्धकता कौन कर सकेगा ? (मजाल है किसीकी ! ) परन्तु ( वाह ! कितना बामौका 'परन्तु' है ! भाषादानी आपपर समाप्त है !) भाषाकी नश्वरता और परिवर्तनशीलतासे मनुष्यको कोई ( नहीं, कुछ ) हानि नहीं।" खैर हानि न सही, पर आगे चलकर न कह देना कि हानि है। [ ४४४ ]