पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४९१

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-अत्यालोचना इस बार आत्मारामको फुरसत कम थी उससे यह बहुत बातें न लिख सका। आगामी बार इस विषयमें कुछ और लिखा पढ़ी करेगा। इस समय केवल इतनी ही विनय है कि अनस्थिरताका फैसिला झटपट हो जाना चाहिये, क्योंकि वही सारी लिखा-पढ़ीकी जड़ है। जिस हिन्दी अखबारकी कुछ पंक्तियां द्विवेदीजीने “व्याकरण सम्मत भाषाका बहुत अच्छा नमूना" समझकर नकल की, उसीसे कुछ ऐसी पंक्तियां नकल की हैं, जिनमें आपको 'हम' 'तुम' 'वे' आदिका अभाव मिल गया है। अभाव दिखाकर आप रायजनी करते हैं- ___ "इससे यह नहीं सूचित होता (बेतुकी हांक न लगाइये ऐसे कहिये- इस कथनसे यह अभिप्राय नहीं-क्योंकि कहनेवाले आप स्वयं हैं ; कोई दूसरा नहीं) कि लेखकको उनका प्रयोग नहीं आता या वह व्याकरण नहीं जानता। (आपकी परम इनायत, लेखककी सख्त खुशनसीबी ! ) नहीं, यह दोनों बात नहीं। (इस कृपाका धन्यवाद, पर आपने बातँकी भांति दोनौं क्यों न लिखा ?) बात यह है (अर्थात् उन दोनोंसे अलग तीसरी बात) कि हिन्दी भाषा अनस्थिर दशामें है। (इसमा का सक ?) व्याकरणके नियमोंकी तरफ किसीका विशेष ध्यान नहीं है। (गनीमत है कि आपका ध्यान तो है ।) इन त्रुटियोंके रहते भी वाक्योंका मतलब समझनेमें बाधा नहीं आती। (पर आपका व्याकरण, वाधा बेचारीको निश्चिन्त होकर बैठने दे तब तो!) परन्तु यदि इसी आधार पर इस तरहकी इबारत लिखी जायगी तो भाषाको कभी स्थैर्य आनेका नहीं। (चिन्ता दूर कीजिये, स्थैर्य नहीं तो अनस्थैर्य जरूर आ जायगा ) सब लोग मनमानी भाषा लिखते रहेंगे और व्याकरणके नियम व्यर्थ हो । (खता माफ, आप क्या किसीसे पूछकर लिखते हैं ?) [ ४७४ ]