गुप्त-निबन्धावली
आलोचना-प्रत्यालोचना
अर्थ यदि कोई राजा साहबको समझा दे, तो कविरत्न शिवदत्तजीका
परिश्रम सफल हो जाय और शायद अब तक सफल हो भी गया
होगा।" इस मलीह-हजोके पश्चात् कुछ पंक्तियां कविकी कवितासे
नकलकी गई हैं।
पर अब गर्मी नहीं है, वसन्तमृतु है। द्विवेदीजीके कानोंमें चारों
ओरसे कोयलका शब्द आ रहा है। उन्हीं शिवदत्त कवीन्द्रने पं० गिरिधर
शर्माके लेखका उत्तर देते हुए द्विवेदीजीकी "अनस्थिरता" की तरफदारीकी
है। इसीसे द्विवेदीजी गद्गद होकर, ६ अप्रेलके हिन्दी बंगवासीमें जून
मासवाले कविरत्नकी बाबत फरमाते हैं -- “अनेक पुस्तकोंके कर्ता कविरत्न
पण्डितवर शिवदत्त शर्माने भो २६ मार्चके बङ्गवासीमें इसी अर्थको
माना है।” जूनमें शिवदत्त 'चूही' थे। उस समय द्विवेदी 'केशरी' उसे
क्या ध्यानमें लाते ? आलोचनाके पंजेसे उसे फाड़ न डाला, यही बहुत
है। पर अब उसी चुहियाने आपका अनस्थिरता-रूपी जाल काट दिया
है। तब द्विवेदीजीकी मोह-निद्रा दूर हुई है। आज द्विवेदीजोने शिवदत्तको
'पण्डितवर' और 'कवीन्द्र' मान लिया और कवीन्द्रजीने उनकी
अनस्थिरता सिद्ध कर दी। अहोरुपमहोध्वनिः-जमाखर्च बराबर ।
हाजीजी मिजाज अच्छा है ? हो, काजीजी आपकी दुआसे !
आत्माराम
Sure
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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५०९
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