पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५१२

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आत्मारामीय टिप्पण प्रशंसा करता है। दूसरे दोहेमें, वह अपनी प्रशंसा करता है । उसके एक चरणके अर्थ तक भी हमारे खुशफहम जीवनी लेखक “ठीक ही है" मानते हैं। पर घबराये हैं दूसरे चरणसे। उसमें 'सुघररूप' लिखा है। आप समझते हैं कि 'सुघररूप' प्रतापने अपनेहीको कहा है। उधर जनाब लिख चुके हैं कि प्रतापकी “नाक बहुत बड़ी थी” “दिनभर नास फांका करती थी” तिस पर भी प्रताप 'सुघररूप'। कभी वह आईनेमें अपना मुंह भी देखा करता था या नहीं? कान्यकुब्जोंमें आईना देखना मना तो नहीं है ? द्विवेदीजीसे प्रश्न है कि जनाबे आली ! बहुत भाषाएं आप पढ़ गये, बहुत तरहकी कविताएं देख गये। कभी किसी भाषाके कविको आपने अपने रूपकी प्रशंसा करते भी देखा ? अथवा कन्नोजियोंहीमें ऐसे बुद्धिसागर होते हैं कि “बहुत बड़ो" और "दिन भर नास फांकने वाली” नाक चेहरे पर चिपकाकर भी अपनेको सुघररूप समझते हैं ? सच तो यह है कि इस दासको आलोचनाने आपको एकदम बौखला दिया। आपने यह जानकर कि यह दास भारतमित्र सम्पादक है और भारतमित्र सम्पादकका प्रतापजीसे सत्सङ्ग रहा है, प्रतापकी ओरसे भी जीमें गुबार पैदा कर लिया और लगे उसकी कविताको और ही दृष्टिसे देखने ! जरा गुबार दूर करके एक बार प्रतापकी कविता पर फिर ध्यान दीजिये। देखिये वह अपने रूपकी प्रशंसा नहीं करता है। वह कहता है-“उसका बेटा प्रतापहरि परम रसिक बुधराज है। जिसे सुघररूप और सतकविताके बिना कोई काम नहीं रुचता"। प्रताप यह नहीं कहता कि मेरा रूप सुघर है, वरञ्च वह कहता है कि अच्छे रूप और अच्छी कविताके बिना मुझे कुछ नहीं रुचता। कवि सदा अच्छी सूरतोंके दिवाने होते हैं। अन्धे होने पर भी सूरने अपने रूपके लालची नैनोंके पचासों पद लिख डाले। एक कवि कहता है- [ ४९५ ]