पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५१९

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालीचना के लिये। व्याकरणका वह विरोधी है, भाषाकी अनस्थिरताको मिटने देना नहीं चाहता, पर हम इन बातोंको एक तरहका भारी धोखा देना और असल बहससे भागना समझते हैं। इससे इन सब इलजामोंकी सफाई कर देना चाहते हैं। जिससे आपसकी लड़ाईका खयाल मिटकर खाली भाषा और व्याकरण सम्बन्धी लड़ाईका खयाल रह जाय। तब भाषा और व्याकरणपर बहस करनेको खूब मौका मिलेगा। जो तत्त्व है, शायद वह भी निकल आवेगा। साथ ही जो लोग अदावतके भाड़में झोंके लगाते हुए असली बहसको कूड़के ढेर में दबाना चाहते हैं, उनकी सूरत भी लोग पहचान लेंगे। (२) ईर्षा-द्वेष __"और जो लोग, 'ज्ञानलवदुर्विदग्ध' हैं, ईर्षा-द्वेषसे जिनका जी जल रहा है, उनको वृहस्पतिके बापकी बातोंमें भी पूर्वापर विरोध और संदिग्ध भाव देख पड़ेगा। हमारा पहला लेख इस बातका प्रत्यक्ष प्रमाण है।" ( सरस्वती फरवरी १९०६ पृष्ठ ६७) इसका अर्थ यह है कि पण्डित महावीरप्रसादजीके “भाषा और व्याकरण" वाले लेखकी जिन लोगोंने प्रशंसा लिख भेजी, वह तो पढ़े लिखे और अच्छे हैं,पर जिन लोगोंने उसके दोष दिखाये, वह 'ज्ञानलवदुर्विदग्ध' हैं। मारे ईर्षा-द्वेषके पण्डितजी पर उनका जी जल रहा है। इससे वह लोग पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी तो क्या, बृहस्पतिके बापकी बातोंको भी टेढ़ी-मेढ़ी और संदिग्ध बता सकते हैं। हमारा प्रश्न है कि ऐसा विचार आपका क्यों हुआ ? हमारी मोटी समझमें तो इसके केवल दो ही कारण हो सकते हैं। या तो यह कि द्विवेदीजी अपनेको कमसे कम बृहस्पति समझते हैं और अपने विचारोंको विवादशून्य और अपनी