पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५३०

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हिन्दीमें आलोचना 'गंगालहरी'-जंसी द्विवेदोजीकी और कविता देखनेमें नहीं आई। फिर छपने योग्य चीज है। इसके बाद “हिन्दी बंगवासी” में हमारा और आपका साबिका पड़ा। सन १८६८ ई० में आपका ‘गर्दभकाव्य' उक्त पत्रमें छपा। और भी कुछ बात आपकी भेजी हुई छपी थीं। याद पड़ता है, वह सब पद्य- होकी थीं। गद्य तब तक आप कम लिखते थे। ___तीसरी बार 'भारतमित्र'में आपसे जान-पहचान हुई। इस बार कुछ अधिक मेल-जोल हुआ। पहले हम द्विवेदीजीका केवल नाम जानते थे और वह शायद हमारा नाम भी न जानते हों। इस बार पण्डित श्रीधरजीकी मारफत जान-पहचान हुई थी, इससे आपसमें पत्र- व्यवहार भी चला ओर लिखा-पढ़ीकी मात्रा भी ग्वब बढ़ी। आप हम पर बहुत कुछ कृपा भो दिखाने लगे। जनवरो १८६६ ई० में हम भारतमित्रमें आये। वर्षके अन्तिम भागमें आपसे हमारी साहिब-सलामत हुई । सबसे पहले १३ नवम्बरके भारतमित्रमें आपकी लिखी “शरत्सायं- काल' कविता छपी। इसका छन्द मेघदूती और भाषा “निदाघकाला”के ढंगकी है। २७ नवम्बरको आपका एक गद्य लेख छपा है-जिसका सिरा है “शास्त्र और सिद्धान्त ।” जिसके नीचे लिखा है-बालबोधसे उद्धत। ४ दिसम्बरके अंकमें आपकी स्वप्न नामकी एक कविता छपी है। उसमें लिखा है कि भूप लक्ष्मण सिंहका अविनाशी आत्मरूप जब आगरेसे उड़कर सुरपुरमें पहुंचा, तो पहले ही कालिदासके पास गया। देखा कि कालिदासका शरीर सूखकर हाड़ोंकी ठठरी बना हुआ है । - मिलते समय राजा डरे कि कहीं कालिदासकी हड्डियां उनके हृदयमें गड़ न जावं। खैर दोनों मिले। पीछे कालिदासने कई बार आँसू पोंछ कर कहा-मैं तो बहुत दिनसे यहां आ गया और मेरी प्राणप्यारी कविता-वधू भारत-भूमिमेंहो रह गई। मेरे वियोगसे वह अनाथ हो