पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५३२

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हिन्दीमें आलोचना सन् १८६६ ई. इस प्रकार बीत गया। नया साल १६०० ई० लगा। उसके ८ जनवरीवाले अङ्कमें द्विवेदीजीकी “सुतपञ्चाशिका" छपी' संध्या होनेसे पहले द्विवेदीजीके एक मित्रने उनसे आकर कहा कि आज जो कचहरीसे फिरकर घर आया, तो देखा कि माता सिर पर हाथ धरे रो रही है। उधर पत्नीकी तरफ देखा, तो उसकी यह दशा थी-- मुख-ऊपर बूंघट घटा तानि, रहि-रहि सह सिसकी रुदन ठानि । तन बसन सबै महं धूरि सानि, फुफकरति मनहु नागिनि रिसानि ।। देखकर घबराया और डरते-डरते मातासे पूछा, तो उसने कहा कि बेटा तेरे लड़का नहीं होता, इसीका दु.ख है। मैंने माताको समझाया कि लड़के होकर मर जाते हैं, तब दुःख होता है और- शत सहस माहि कहुँ एक सपूत । लखि परै शेष सारे कपूत । बहु पुत्रवान जनके निशान । मिट गये न कोऊ कतहुं जान | पै सुयशवान, जउ पुत्र हीन ! भे अमर विश्व-बिच नाम कीन । इस प्रकार माताको समझाकर मित्रजी मित्रसे मिलने आये। इसी पर द्विवेदीजीने 'पञ्चाशिका' रची। (४) नेक नजर और नेकनीयती १५ जनवरी सन् १६०० ई०के भारतमित्र' में पण्डित महावीर प्रसादजी द्विवेदीकी प्रसिद्ध बालविनोद नामकी कविता छपी है। जिसकी [ ५१५ ।